Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
आत्मा नो कर्मणः कर्ता कर्मकर्ताऽस्ति कर्म वै ।
वा सहजः स्वभावः स्यात् कर्मणो जीवधर्मता ॥७१ अर्थात्-जीव कर्मोंका कर्त्ता नहीं है, कर्म अपने आप ही अपने कर्ता हैं अथवा वे अनायास ही होते रहते हैं। इस पर तुम कहो कि ऐसा नहीं है किन्तु जीव ही कर्मोंका कर्ता है। तब तो फिर कर्म करना जीवका धर्म-स्वभाव-ही है और जब वह जीवका स्वभाव ठहर गया तब कभी जीवसे अलग भी नहीं हो सकता ।
आत्मा सदा असंग ने, करे प्रकृति बंध । अथवा ईश्वर प्रेरणा, तेथी जीव अबंध ॥ ७२ ॥ स्यादसंगः सदा जीवो बन्धो वा प्राकृतो भवेत् ।
वेश्वरप्रेरणा तत्र ततो जीवो न बन्धकः ॥ ७२ ॥ अर्थात्-अथवा ऐसा न कहो तो यों कहो कि आत्मा सदा निःसंग है और सत्व आदि गुण-युक्त प्रकृतियाँ कर्मोंका बंध करती हैं। इस बातको भी स्वीकार न करो तो यह कहो कि जीवको कर्म करनेके लिए ईश्वर प्रेरणा करता है और इस लिए कर्म करना ईश्वरकी इच्छा पर निर्भर रहनेसे जीव फिर कर्म-बन्धसे निर्मुक्त ही है।
माटे मोक्ष-उपायनो, कोइ न हेतु जणाय । कर्मत' कर्तापणुं, कां नहीं, कां नहीं जाय? ॥७३॥
ततः केनाऽपि हेतुना मोक्षोपायो न गम्यते । जीवे कर्मविधातृत्वं नास्त्यस्ति चेन्न नश्यताम् ॥ ७३
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