Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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आत्मसिद्धि।
यह कभी संभव नहीं कि अपने आत्माकी सहायताके बिना कोई किसी पदार्थको जान सके । जाननेके लिए पहले अपना आत्मा होना ही चाहिए। इसके सिवा जब किसी पदार्थका उदासीन भावसे ग्रहण या त्याग किया जाता है तब उस त्याग-रूप ज्ञानके लिए भी स्वयं आत्मा ही कारण है। दूसरे पदार्थका ग्रहण--थोड़ासा भी ज्ञान-तभी हो सकता है जब कि पहले आत्मा विद्यमान होता है। इस प्रकार सब कार्यों में पहले जिसकी मौजूदगी रहती है वह 'जीव' पदार्थ है। उसे गौण करके
आत्माके बिना किसी पदार्थका जानना संभव नहीं। जब आत्मा ही मुख्य रहता है तभी दूसरे पदार्थ जाने जा सकते हैं । इस प्रकारका 'ऊर्ध्व-धर्म' जिसमें है उसे श्रीतीर्थकर प्रभुने जीव कहा है।
जीवका लक्षण है 'ज्ञायकफ्ना'; और वह जड़की भिन्नताका कारण है। इस ज्ञायक गुणके बिना जीव कभी किसी बातका अनुभव नहीं कर सकता। और यह ज्ञायकपना जीवको छोड़ कर अन्य किसी वस्तुमें रह भी नहीं सकता । इस प्रकार अत्यन्त अनुभवका कारण 'ज्ञायक' गुण जिसका लक्षण है उसे तीर्थंकर प्रभुने जीव कहा है।
शब्दादि पाँच प्रकारके विषय अथवा समाधि आदि योग-सम्बन्धी स्थितिमें जो सुख होता है उसका भिन्न भिन्न विचार करने पर अन्तमें सबमें सुखका कारण एक जीव ही जान पड़ता है। और इसी लिए तीर्थकर प्रभुने 'सुखाभास' जीवका एक लक्षण कहा है। व्यवहार-नयसे यह लक्षण निद्राके समय प्रकट जान पड़ता है। निद्राके समय किसी पदार्थका भी सम्बन्ध नहीं रहता, तो भी यह जो ज्ञान होता है कि 'मैं सुखी हूँ' वह
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