Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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आत्मसिद्धि।
अर्थात् जो आत्म-ज्ञानमें स्थित हैं, पर-भावकी इच्छासे जो रहित हैंपर वस्तुओंमें जिनकी आसक्ति या मोह नहीं है, शत्रु-मित्र, हर्ष-शोक, नमस्कार-तिरस्कार आदिमें जिनके समान भाव हैं, केवल पूर्व-कृत कर्मोंके कारण जिनकी आहार-विहार आदिमें इच्छा होती है, जिनकी वचनशैली अज्ञानियोंसे प्रत्यक्ष भिन्न होती है और जो छहों दर्शनके आशयको अच्छी तरह समझे हुए होते हैं वे सच्चे सद्गुरु हैं या सद्गुरुके ये लक्षण हैं।
प्रत्यक्षसद्गुरु सम नहीं, परोक्ष जिनउपकार । एवो लक्ष थया विना, उगे न आत्मविचार ॥११॥ प्रत्यक्षसद्गुरुतुल्या परोक्षोपकृतिर्न हि।
अकृत्वैतादृशं लक्ष्यं नोद्गच्छेदात्मचारणम् ॥११॥ अर्थात्-जब तक जीवका लक्ष पूर्व-कालमें हुए जिन भगवानकी बातों पर ही रहता है और वह उन्हींका उपकार गाया करता है। परन्तु जिन सद्गुरुके समागमसे प्रत्यक्ष आत्म-भ्रान्तिका समाधान हो सकता है उनमें; परोक्ष जिनभगवानके वचनोंकी अपेक्षा अधिक उपकार समाया हुआ है इस बातको जो नहीं जानता तब तक उसे आत्म-विचार उत्पन्न नहीं होता।
सद्गुरुना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप। समज्या वण उपकार शो ? समज्ये जिनखरूप१२
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