Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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श्रीमद् राजचन्द्र
इस निश्चयको बदल देनेका ही मन होता है । इतने पर भी उधर आनेके प्रसंगके संबधमें मैंने कुछ विचार किया था, परन्तु अपने उक्त निश्चयको बदल देनेसे अन्य कई विषम कारणोंको उपस्थित देख कर उसके बदल देनेकी वृत्तिको शान्त कर देना ही योग्य जान पड़ा। इसके सिवाय अन्य और भी कई ऐसे विचार मनमें समा रहे हैं जिससे मैं नहीं आ सकता। परन्तु इससे यह न समझना चाहिए लोक-व्यवहारके कारणोंके उपस्थित होने पर भी मैंने अपने आनेका विचार छोड़ दिया है। मैंने अपने आने न आनेके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है प्रार्थना है कि वह किसीके सामने प्रगट न किया जाय तो अच्छा है।"
इस प्रकार कई लोगोंने श्रीमदू राजचंद्र पर परमार्थ मार्गके उद्धारार्थ काम करनेके लिए समय समय पर दबाव डाला था; परन्तु उन्होंने-परमार्थके उद्धारकी संभावना रहने पर भी-तब तक इस विषयमें हाथ डालनेके लिए इन्कार ही करना उचित समझा जब तक कि उनकी अन्तिम वृत्ति उनकी इच्छाके अनुसार संयोगोंको प्राप्त न करले । इस पर विचार करने पर कि इसका कारण क्या होगा, उनकी प्राइवेट डायरी में नीचे लिखे अनुसार प्रश्नोत्तरके रूपमें लिखा हुआ मिलता है। उसमें लिखा है:
"परानुग्रह और परम कारुण्य-वृत्ति करनेके पहले तू चैतन्य जिनप्रतिमा बन !-चैतन्य प्रतिमा बन !
वैसा काल है? इस विषयमें विकल्प छोड़!
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