Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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परिचय ।
१२१ करना सचमुच बिना आत्म-बलके कठिन है। उस कविताका भाव
योगीजन जिस अनन्त आत्म-स्वरूपके प्राप्तिकी इच्छा करते हैं वह मूल, शुद्ध आत्मपद सयोगी जिनका स्वरूप है। _ "वह आत्म-स्वरूप अगम्य है, उसकी प्राप्तिका अवलम्बन-आधारजिन-स्वरूपके द्वारा दिखलाया गया है।"
"जिनपद और निजपदमें कुछ भेद-भाव नहीं है, उसकी ओर लक्ष्य दिलानेके लिए यह सब शास्त्रोंकी रचना हुई है।"
"जिनसिद्धान्त अति दुर्गम है, बड़े बड़े बुद्धिमान् पुरुष भी उसकी तह तक पहुँचनेमें हार मान जाते हैं । वही श्रीसद्गुरुके सहारेसे अति सुगम और सुख-रूप हो जाता है।
"अतिशय भक्ति-पूर्वक जिनचरणोंकी सेवा, संयम-पूर्वक मुनि-जनोंके समागममें अत्यन्त प्रेम, उनके गुणोंमें अत्यधिक आनन्द, आत्मामें उपयोग, तथा जैनसिद्धान्तकी प्राप्ति ये सब गुण सद्गुरुके द्वारा प्राप्त होते हैं। 'बिन्दुमें समुद्र समाजानेकी भाँति चौदह-पूर्वकी प्राप्तिका उदाहरण है।
"जिसकी बुद्धिकी प्रवृत्ति विषय-सम्बन्धी विकारोंसे युक्त है, और जिसके परिणाम विषम है उसके लिए योग-धारण किसी कामका नहीं।
"और जिसने विषयोंकी मन्दता, सरलता, जिनाज्ञाका पालन तथा
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