Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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परिचय ।
शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिससे वैराग्य और शक्तिका बल बढ़े। जीवके लिए यही परम हितकारी है। इसके सिवाय अन्य सम्बन्धके छोड़नेका यत्न करना चाहिए।"
"विशेष बिनती यह है कि आपका पत्र मिला । आपने जो भावनगर आनेके लिए मुझे लिखा उस विषयमें मेरी स्थिति नीचे लिखे अनुसार है। मेरा बाह्य व्यवहार लोगोंको भ्रम पैदा करनेवाला है; और इस अवस्थामें रह कर एक बलवान् निग्रंथके जैसा उपदेश करना यह उस मार्गके साथ विरोध करनेके जैसा है। और यही सोच कर तथा इसी प्रकारके अन्य कई कारणों पर विचार कर ऐसी स्थिति में- जो लोगोंको सन्देहका कारण हो जाय-मेरा आना नहीं हो सकता। कभी किसी समागमके अवसर पर कुछ स्वाभाविक उपदेश देने-रूप प्रवृत्ति हो जाती है। परन्तु उसमें भी चित्तकी इच्छित प्रवृति नहीं होती। पहले यथावस्थित विचार किये बिना जीवने जो प्रवृत्ति की उसीके कारण इस प्रकारके व्यवहारका उद्य आया है और इसके लिए चित्तमें बड़ा खेद रहता है । परन्तु यह जान कर कि प्राप्त स्थितिको समभावोंसे भोगना उचित है, ऐसी ही वृत्ति रहा करती है । इस व्यापारादिके उदय-व्यवहारसे जो जो सम्बन्ध होते हैं उनमें परिणामोंकी प्रवृत्ति प्रायः अलिप्त-सी रहती है; कारण उनमें सारभूत कुछ नहीं जान पड़ता। परन्तु धार्मिक व्यवहार-प्रसंगमें ऐसी प्रवृत्ति-व्यापारादि-करना अच्छा नहीं जान पड़ता। और यदि किसी दूसरे आशयका विचार कर-लोक-हितकी कामना आदिके वश-प्रवृत्ति की जाय तो वर्तमानमें मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है। और इसी कारण ऐसे प्रसंगों पर मेरा आना-जाना बहुत ही कम होता है। इसके सिवाय न इस समय
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