Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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श्रीमद् राजचन्द्र
उनमें कितनी ही बातें केवल उपदेशके अर्थ रूपक बाँध कर कही गई हैं। हमें भी उनके द्वारा उपदेशके रूपमें ही लाभ उठाना उचित है; ब्रह्मादिके स्वरूपके निर्णयके झगड़ेमें न पड़ना चाहिए। और मुझे विशेष कर यही अच्छा लगता है ।
२७ वाँ प्रश्न -- सर्प काटनेके लिए आवे तो उस समय हमें स्थिर रह कर उसे काटने देना उचित है या मार डालना ? और कल्पना करो कि इस उपायके सिवाय उसे दूर करनेकी हममें शक्ति नहीं है ।
उत्तर- इस प्रश्नका मैं यह उत्तर दूँ कि सर्पको 'काटने दो' तो बड़ी कठिन समस्या आकर उपस्थित होती है; तथापि तुमने जब यह समझा है कि 'शरीर अनित्य है' तो फिर इस असार शरीरकी रक्षार्थ उसे मारना क्यों कर उचित हो सकता है जिसकी कि इस शरीर में प्रीति है - मोह- बुद्धि है । जो आत्म- हितके इच्छुक हैं उन्हें तो यही उचित है कि वे शरीर से मोह न कर उसे सर्पके अधीन कर दें । अब तुम यह पूछोगे कि जिसे आत्म- हित न करना हो उसे क्या करना चाहिए ? तो उसके लिए यही उत्तर है कि उसे नरकादि कुगतियोंमें परिभ्रमण करना चाहिए; उसे यह उपदेश कैसे किया जा सकता है कि वह सर्पको मार डाले ? अनार्यवृत्तिके द्वारा सर्पके मारनेका उपदेश किया जाता है; पर हमें तो यही इच्छा करना चाहिए कि ऐसी वृत्ति स्वममें भी न हो ।
इस प्रकार संक्षेपमें तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर दे कर मैं अब पत्र पूरा करता हूँ । एक बात यह कहना है कि ' षट्दर्शन - समुच्चय' के समझनेका विशेष यत्न कीजिए । मैने जो संक्षेपमें प्रश्नोंके उत्तर दिये हैं उससे किसी किसी जगह उनके समझने में विशेष उलझन जान पड़े तो भी
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