Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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श्रीमद् राजचन्द्रसमय इसी हालतमें रहना मुझे बहुत पसंद है ।... और आपने जो दूसरोंको मेरा पता लिख कर मुझे प्रसिद्ध करनेका यत्न किया; परन्तु वह मुझे पसन्द नहीं । इसके लिए मुझे प्रकट-रूपमें प्रतिबंध करना ठीक नहीं जान पड़ता।”
दूसरे उनके एक पत्रसे जान पड़ता है कि तब तक उनकी इच्छा धर्ममार्गके उद्धारार्थ प्रवृत्त होनेकी न थी जब तक उनमें उनकी इच्छानुसार आत्मावस्था प्रकट न हो जाय । इसी प्रकार वे यह भी नहीं चाहते थे कि उनके नाम, स्थान आदिकी प्रसिद्धि हो । इस पत्र में उन्होंने लिखा था कि "हम जब तक अपने में अभिन्न हरिपद ( आत्म-पद) का लाभ न प्राप्त कर लेंगे तब तक 'स्वयं मार्गका उपदेश न करेंगेऔर तुम भी, हमें जो लोग जानते हैं उनके सिवाय अन्य किसीको हमारा नाम, गाँव, स्थान आदि न बतलाना।"
सं० १९५० असाढ़ सुदी १५ के एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि "तुम्हारे वहाँ आनेसे अधिक लोगोंके साथ सम्बन्ध बढ़ना संभव है, इस कारण उधर आनेके लिए चित्त नहीं होता।"
एक बार भावनगर-निवासी एक सज्जनने श्रीमद् राजचंद्रको भावनगर आनेके लिए लिखा था । उसका उत्तर देते हुए उन्होंने १९५१ में एक पत्रमें लिखा थाः__ "लोगोंके साथ व्यापार आदिका सम्बन्ध रहते हुए धर्म-प्रसंगके बहाने कहीं जाना-आना अनुचित जान पड़ता है । इस कारण मनमें यह बात विशेषतया रहा करती है कि जैसे बने तैसे धर्मके द्वारा होनेवाले सम्बन्धसे सदा दूर ही रहना अच्छा है। किन्तु ऐसा सत्संग या ऐसे ही
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