SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ श्रीमद् राजचन्द्र इस निश्चयको बदल देनेका ही मन होता है । इतने पर भी उधर आनेके प्रसंगके संबधमें मैंने कुछ विचार किया था, परन्तु अपने उक्त निश्चयको बदल देनेसे अन्य कई विषम कारणोंको उपस्थित देख कर उसके बदल देनेकी वृत्तिको शान्त कर देना ही योग्य जान पड़ा। इसके सिवाय अन्य और भी कई ऐसे विचार मनमें समा रहे हैं जिससे मैं नहीं आ सकता। परन्तु इससे यह न समझना चाहिए लोक-व्यवहारके कारणोंके उपस्थित होने पर भी मैंने अपने आनेका विचार छोड़ दिया है। मैंने अपने आने न आनेके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है प्रार्थना है कि वह किसीके सामने प्रगट न किया जाय तो अच्छा है।" इस प्रकार कई लोगोंने श्रीमदू राजचंद्र पर परमार्थ मार्गके उद्धारार्थ काम करनेके लिए समय समय पर दबाव डाला था; परन्तु उन्होंने-परमार्थके उद्धारकी संभावना रहने पर भी-तब तक इस विषयमें हाथ डालनेके लिए इन्कार ही करना उचित समझा जब तक कि उनकी अन्तिम वृत्ति उनकी इच्छाके अनुसार संयोगोंको प्राप्त न करले । इस पर विचार करने पर कि इसका कारण क्या होगा, उनकी प्राइवेट डायरी में नीचे लिखे अनुसार प्रश्नोत्तरके रूपमें लिखा हुआ मिलता है। उसमें लिखा है: "परानुग्रह और परम कारुण्य-वृत्ति करनेके पहले तू चैतन्य जिनप्रतिमा बन !-चैतन्य प्रतिमा बन ! वैसा काल है? इस विषयमें विकल्प छोड़! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy