SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिचय। वैसा क्षेत्र-योग है? ढूँढ़! वैसा पराक्रम है? अप्रमादी शूरवीर बन! उतना आयुर्बल है ? इस विषयमें क्या लिखें? क्या कहें ? अपने भीतर देख! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।" श्रीमद् राजचंद्रके लेखोंका जो संग्रह प्रकाशित हुआ है उसके संशोधकने इन प्रश्नोंका जो खुलासा किया है उस परसे बहुत प्रकाश पड़ता है । इनका पृथक्करण करते हुए संशोधक महाशयने लिखा है कि "परानुग्रह-रूप परम कारुण्य-वृत्ति करनेके पहले तू चैतन्य जिन-प्रतिमा बन !” इसका आशय यह है कि अन्य जीवों पर अनुग्रह रूप-मार्गके उद्धार करने रूप-परम करुणा-वृत्ति करने के पहले तू स्वयं जिन प्रभुकी चैतन्य प्रतिमाके जैसी-~साक्षात् जिनके जैसी-अटल-अचल दशा प्राप्त कर । उन्होंने अपने उस वाक्यमें 'चैतन्य जिन-प्रतिमा बन' इस वाक्यका दो बार प्रयोग किया है वह विशेष उल्लासका सूचक है । इस विषय पर नीचे विचार किया जाता है कि पहले स्वयं जिनके जैसी अटलअचल दशा प्राप्त करने और बाद परानुग्रह करनेके लिए अनुकूल साधन हैं या नहीं। उनकी समझमें इस विषयके चार साधन जान पड़े पर वे साधन प्राप्त हैं या नहीं, इस विषयमें उन्होंने अपने आपहीसे पूछा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy