Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
View full book text
________________
परिचय ।
५१
नहीं पड़ता। उनका वह निर्णय एकांशको लिये हुए है और कुछ कुछ पूर्वकालसे इस समयमें बदला हुआ भी जान पड़ता है। यह ठीक है कि वेदान्तमें जगह जगह आत्म-चर्चा ही की गई है। परन्तु यह अब तक भी निश्चित नहीं हो पाया कि वह चर्चा स्पष्ट रीतिसे अविरोधी है। यह भी हो सकता है कि किसी मौके पर विचार-भेदके कारण वेदान्तका आशय हमें दूसरे ही रूपमें भासने लगे; और ऐसी शंकायें चित्तमें बार बार उठा भी करती हैं और इसी कारण मैंने अपनी सब आत्म-शक्तिको लगा कर उसे अविरोधी रूपमें देखनेका यत्न किया है; तथापि यह जान पड़ता है कि वेदान्तमें जैसा आत्म-स्वरूप वर्णन किया गया है उससे वेदान्त सर्वथा अविरोधी नहीं कहा जा सकता, इस लिए कि आत्म-स्वरूप सर्वथा वैसा ही नहीं है। वेदान्तमें इसका कोई बड़ा भारी भेद देखने में आता है। और इसी प्रकार सांख्य आदि मतोंमें भी भेद देखा जाता है। परन्तु हाँ, श्रीजिन भगवानने जो आत्माका स्वरूप कहा है वह विशेषतया अविरोधी दिखाई पड़ता है और वैसा ही अनुभवमें आता है । यह प्रतीति होता है कि श्रीजिन भगवानके द्वारा कहा गया आत्म-स्वरूप सर्वथा अविरोधी होना चाहिए। यह उसके लिए भी नहीं कहा जा सकता कि वह सर्वथा अविरोधी ही है । इसका कारण इतना ही है कि सम्पूर्ण-रूपसे अभी हमारी आत्म-दशा प्रकट नहीं हुई है। परन्तु इतना अवश्य है कि जितनी आत्म-दशा प्रकट है उससे अप्रकट आत्म-दशाका वर्तमानमें अनुमान किया जा सकता है । इस अनुमान पर भी विशेष जोर देना उचित न समझ यह कहा है कि जिन भगवानका कहा आत्म-खरूप विशेषतया अविरोधी जान पड़ता है और वह सर्वथा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |