Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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श्रीमद् राजचन्द्र
लेखोंको पढ़ कर कोई यह मतलब न निकाले कि श्रीमदू राजचंद्रका रत्ती भर भी जैनधर्मके प्रति पक्षपात था । मतलब यह है कि अन्य लेखोंकी अपेक्षा यह लेख सर्वथा पक्षपात-रहित है। उस लेखमें वे कहते हैं कि "वेदान्त जिस प्रकार आत्म-स्वरूप बतलाता है उससे वह सर्वथा अविरोधी नहीं है। क्योंकि जैसा वह कहता है सर्वथा वैसा आत्म-स्वरूप नहीं है। उसमें कोई बड़ा भारी भेद दिखाई पड़ता है और वैसा ही उसका वेदन होता है।” इसमें दो वाक्यों पर खास ध्यान देना चाहिए। पहले तो उन्होंने जो यह कहा कि "वेदान्त
आदि जैसा कहते हैं उसी प्रकार आत्म-स्वरूप नहीं है।" इसमें वैसा ही शब्दका प्रयोग कर जो उन्होंने वाक्य पर जोर डाला है वह उनका वैसा ही अनुभव बतलाता है । जो स्वयं इस बातका उन्हें अनुभव न हुआ होता तो वे 'उसी प्रकार आत्म-स्वरूप नहीं है', इस प्रकार अनुभव-सूचक जोरदार वाक्य कमी न लिखते । कारण उनके अभिप्राय इसी पत्र परसे जान पड़ते हैं कि वे ऐसा कभी नहीं कह सकते कि जितना अनुभव उन्हें हुआ हो उससे ज्यादा बतलावें । जैनधर्ममें कहे हुए आत्म-स्वरूपका अनुभव उन्हें था; और इस बातका विश्वास इस परसे भी हो सकता है कि वे जैनधर्ममें कहे गये आत्म-खरूपका अनुभव करते थे । उन्होंने लिखा है कि "जितनी आत्म-दशा प्रकट है उससे अप्रकट आत्म-दशाका भी अनुमान किया जा सकता है।" यह बात बतलाती है कि श्रीमदू राजचंद्रको जैनधर्ममें कहे हुए आत्म-स्वरूपका एक खास सीमा तक अनुभव हो चुका था। उन्होंने कहा है कि "हममें सम्पूर्ण-रूपसे आत्मावस्था प्रकट नहीं
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