Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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परिचय |
धारक हो गये । और साधारणतया उसमें कोई आचार्य तथा उसके जानकार विद्वान् होते भी रहते हैं । जैनधर्म में बहुत वर्षों से ऐसा नहीं हुआ । और उसके धारकोंकी संख्या भी बहुत थोड़ी है । इसके सिवाय उसमें सैकड़ों ही भेद-प्रभेद हो रहे हैं । इतना ही नहीं, किन्तु मूलमार्गकी बात भी इन लोगोंके कानों तक नहीं पहुँचती और न इसके वर्तमान उपदेशकों – प्रवर्त्तकों का ही लक्ष्य इस ओर है। जैनधर्मकी ऐसी स्थिति हो रही है । इसी कारण चित्तमें ये विचार उठा करते हैं कि यदि इस मार्गका प्रचार बढ़ सके तो वैसा करना चाहिए, अन्यथा उसके वर्तमान पालन करनेवालोंको उसके मूलभार्ग की ओर लगाना उचित है ।
यह काम बड़ा विकट है । इसके सिवाय जैनधर्मको स्वयं समझना तथा दूसरे को समझाना और भी कठिन है । दूसरों को समझाते समय बहुत से विपरीत कारण आकर उपस्थित हो जाते हैं । ऐसी स्थिति को देख कर उसमें प्रवृत्त होनेको जी नहीं चाहता - डरसा लगता है । इसीके साथ यह विचार भी आता है कि इस काल में हमारे द्वारा कुछ कार्य हो सके तो हो सकता है; यह नहीं देख पड़ता कि मूलमार्ग के सन्मुख होनेके लिए वर्तमानमें किसी दूसरेका प्रयत्न सफल हो । कारण यह कि प्रायः दूसरे लोग मूलमार्गको जानते नहीं हैं या उसका स्वरूप उनके ध्यान में नहीं है । इसी प्रकार उसका उपदेश' करनेके लिए परम श्रुतज्ञता आदि गुण होने चाहिए तथा कितने ही अन्तरंग गुणोंके होने की भी आवश्यकता है । यह दृढ़ प्रतीति होती है कि ऐसे कुछ गुण इस व्यक्तिमें है । इस प्रकार यदि मूलमार्गके उद्धार करनेकी आवश्यकता हो तो उस उद्धारका कार्य करनेवाले व्यक्तिको सर्व-संगका परित्याग करना उचित है; क्योंकि ऐसा करने पर ही
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