Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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परिचय।
"गतवर्ष अगहन महीनेमें जबसे मैं बम्बई आया हूँ तबहीसे व्यापारसंबंधी झंझटें उत्तरोत्तर अधिक अधिक ही बढ़ती गई और प्रायः उन झंझटोंको उपयोग-पूर्वक भोगना पड़ा है । तीर्थंकर भगवानने स्वभावसे ही इस कालको दुःषम काल कहा है और खास कर जनताकी प्रवृत्तिसे अनार्य बने हुए इस क्षेत्रमें तो यह काल और भी अधिक बलके साथ वर्त रहा है। लोगोंकी बुद्धि में आत्म-विश्वास बिलकुल ही नहीं रहा है। ऐसे दुःषम समयमें व्यवहारकी अपेक्षा परमार्थको भूल जाना आश्चर्यकी बात नहीं है। किन्तु उसे न भूलना ही आश्चर्य है । आनन्दघनजीने चौदहवें जिनकी स्तुतिमें भी एक जगह इस क्षेत्रको दुःषम काल वर्णन किया है। और उनके समयसे इस समय तो और भी अधिक दुःषमता वर्त्त रही है। ऐसे समयमें आत्म-श्रद्धानी पुरुषोंके लिए आत्म-हितका कोई मार्ग हो तो यह एक यही है कि उन्हें निरंतर सत्पुरुषोंकी संगति करनी चाहिए। देखो, सब प्रकारकी इच्छाओंके प्रति हमारी प्रायः उदासीनता है तो भी ये संसारके व्यवहार और काल आदिक, एक बार-बार डूबते और उझकते हुए मनुष्यकी भाँति इस संसार-समुद्र के पार करनेमें हमसे बड़ा कड़ा परिश्रम लेते हैं । उस परिश्रमसे जो समय समय पर अत्यन्त सन्ताप बढ़ता है उसे शान्त करनेके लिए हमें भी. सत्संग-रूप जलके पीनेकी अत्यन्त इच्छा रहा करती है और यही बात हमें दुःख-रूप जान पड़ती है। इतना सब कुछ होने पर भी परिणामोंमें द्वेष बुद्धिको उत्पन्न न होने देना चाहिए । सर्वज्ञ भगवानका यह सिद्धान्त इस बातको सिद्ध करता है कि सब व्यवहारोंमें समता-भाव होना चाहिए । मानों आत्मा जैसा उन व्यवहारोंके विषयमें कुछ जानता नहीं है।"
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