Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
के० आर० चन्द्रा
२.
मूल घोष व्यञ्जन के बदले में अघोष ' व्यञ्जन का त्याग एवं लोप का स्वीकार -
(
) आयाणीयं ( सूत्र १४, ३६, ४४, ५२, पाठान्तर - आताणीयं ) (ख) पवयमाणा (सूत्र १२, पाठान्तर - पवतमाणा )
३.
४.
५.
मूल अघोष व्यञ्जन का घोष अस्वीकृत, परन्तु लोप स्वीकृत -
(
) उववाइए (सूत्र १, २, पाठान्तर - उववादिए )
( ख ) सहसम्मुइयाए ( सूत्र २, पाठान्तर - सहसम्मुदियाए )
[ दिगम्बरों के प्राचीन शास्त्र की भाषा शौरसेनी है और उसमें 'त' का 'द' पाया है । 'त' का लोप तो बहुत बाद में हुआ है । अतः श्वेताम्बरों के अर्धमागधी आगम की भाषा क्या दिगम्बरों के आगमों से भी पश्चात्कालीन मानी जानी चाहिए ? ] मूल व्यञ्जन के बदले में लोप स्वीकृत -
क. सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ ( सूत्र २, पाठान्तर - सव्वातो वा दिसातो सव्वात अणुदिसतो )
ख. अवियाणओ ( सूत्र ४९, पाठान्तर - अविजाणतो )
ग. कप्पइ कप्प णे पातुं ( सूत्र २७, पाठान्तर - कप्पति णे कप्पइ णे पातुं )
घ. सहसग्गुइयाए ( सूत्र २, पाठान्तर - सहसग्गुतियाए )
ङ. अहं ( सूत्र ४१, पाठान्तर - अधं )
प्राचीन के बदले अर्वाचीन रूप ( शब्द का ) स्वीकृत -
१. 'त' श्रुति का प्रश्न :- मध्यवर्ती 'त' एवं 'थ' का क्रमशः 'द' एवं 'घ' में बदलना शौरसेनी एवं मागधी भाषा का लक्षण माना गया है। यह प्रवृत्ति महाराष्ट्री प्राकृत में होने वाले लोप से प्राचीन मानी गयी है । पैशाची प्राकृत में 'द' का 'त' में परिवर्तन होता है और यह प्रवृत्ति भी लोप से प्राचीन मानी गयी है । 'द' के 'त' में होने वाले परिवर्तन एवं मध्यवर्ती 'त' को सुरक्षित रखने वाली प्रवृत्ति को 'त' श्रुति नहीं कहा जा सकता। इन दो व्यञ्जनों के अतिरिक्त अन्य मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यब्जन के स्थान पर यदि 'त' आता हो तो उसे हो 'त' श्रुति कहा जायगा । जैसे: - धम्मतं ( धर्मकम्, सूत्र ४५ ), उपवादिते ( उपपातिके, सूत्र २ ), बाहिता ( बाह्यका, सूत्र ५६ ) इत्यादि 'त' श्रुति के उदाहरण हैं । सता ( सदा, सूत्र ३३), पवतमाण ( प्रवदमान, सूत्र १२ का पाठान्तर ) इत्यादि 'त' श्रुति के उदाहरण नहीं माने जाएँगे, परन्तु घोष व्यञ्जन का अघोष में परिवर्तन माना जायेगा ।
[ इधर इतना और स्पष्ट कर देना उचित होगा कि पू० जम्बूविजयजी ने 'तहा' और 'जहा' के बदले ताडपत्रीय प्रतों और चूर्णि में मिलने वाले 'तधा' और 'जवा' को छोड़ दिया है और उनके पाठान्तर भी क्वचित् ही दिये हैं (देखिए प्रस्तावना, पृ० ४४ ) । ऐसा करके उन्होंने प्राचीन रूप छोड़ दिये हैं और उनके बदले में अर्वाचीन रूपों को स्वीकार किया है । ]
२. सूत्र नं. १ में ओ एवं तो ( पंचमी एकवचन की विभक्ति ) दोनों रूप एक साथ स्वीकृत किये गये हैं । सूत्र नं. २ में 'पुरत्थिमातो दिसातो' में 'दिसातो' का स्वीकृत पाठ किसी भी ताडपत्रीय प्रत का पाठ नहीं है । इसी तरह आगे इसी सूत्र में 'इमाओ दिसाओ' के बदले में कागज की जै० प्रत का पाठ 'इमातो दिसातो' क्यों छोड़ दिया गया है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org