Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
भागचंद जैन भास्कर
'तत्त्व' किसी भी धर्म और दर्शन की मूल भित्ति है । अतः सभी दर्शनों ने 'तत्त्व' की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की है। वस्तु के असाधारण स्वतत्त्व को 'तत्त्व' कहा जाता है। तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परम, परमपरम, ध्येय, शुद्ध-ये सभी एकार्थवाची शब्द हैं। जैन एवं बौद्धधर्म ने इसके लिए 'सत्' शब्द का भी प्रयोग किया है।
जैनधर्म में मूलतः दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव । आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा पुण्प और पाप ये सात तत्त्व अथवा सात पदार्थ जीव और अजीव की ही पर्याय हैं।
बौद्धधर्म में आचार्य अनुरुद्ध ने प्रज्ञप्त्यर्थ और परमार्थ को बात करते हुए परमार्थ को चतुविध बताया है-चित्त, चैतसिक, रूप और निर्वाण । यहाँ प्रज्ञप्त्यर्थ कल्पित है, भ्रमजनित है, अतः व्यावहारिक धर्म है तथा परमार्थ को वास्तविक धर्म की संज्ञा दी गई है। ये चारों परमार्थ एक दूसरे से गंथे हुए हैं, फिर भी तुलना की दृष्टि से हम इन्हें क्रमशः आत्मा, कर्म, द्रव्य और मोक्ष के साथ रख सकते हैं। ये चार परमार्थ बौद्धधर्म के तत्त्व कहे जा सकते हैं। एक अन्य प्रकार से चार आर्यसत्यों को चार तत्त्वों के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रथम सत्य जीव और कर्म से सम्बद्ध है, द्वितीय सत्य आश्रव और बंध से, तृतीय सत्य मोक्ष से और चतुर्थ सत्य संवर और निर्जरा से सम्बन्धित है।
बौद्धधर्म में वस्तु-सत् को संस्कृत धर्म और असंस्कृत धर्म के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। हीनयान में संस्कृत धर्म वस्तु-सत् है, पर महायान उसे शन्य कहता है। महायान में धर्म शन्य केवल धर्मता (धर्मकाय) वस्तु-सत् है। क्षणिक संस्कृत धर्मों के अतिरिक्त हीनयान में आकाश और निर्वाण को असंस्कृत धर्म कहा गया है । यहाँ संसार और निर्वाण, दोनों वस्तु-सत् हैं और प्रज्ञप्ति-सत् भी हैं । महायान में वस्तु को शान्त, अद्वय, अवाच्य, विकल्पातीत और निष्प्रपञ्च कहा गया है । उसको दृष्टि से जो परतन्त्र है, वह वस्तु नहीं है। अतः संस्कृत-असंस्कृत पदार्थ वस्तु-सत् नहीं हैं। वे तो शून्यता के प्रतीक हैं । इसप्रकार हीनयान का बहुधर्मवाद' महायान में अद्वयवाद बनकर आया है ।
जैन दर्शन में इतना अधिक सैद्धान्तिक विकास नहीं दिखाई देता। इसका मूल कारण यह है कि बौद्ध दर्शन के विकास में जो तत्त्व एकत्रित हुए हैं, वे तत्त्व जैन दर्शन की पृष्ठभूमि में नहीं पनप सके। जैन दर्शन का विकास बौद्ध दर्शन के विकास की तुलना में एक अत्यन्त मन्थर गति लिये हुए दिखाई देता है । आगे के विवेचन से यह तथ्य स्पष्ट हो जायगा ।
१. राजवार्तिक, २, १,६ । २. नयचक्र, ४। ३. अभिधम्मत्थसंगहो. पञ्चम परिच्छेद ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org