Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
४१ प्रकार रूपों की उत्पत्ति होती है, इसे रूप समुत्थानकलाप में स्पष्ट किया गया है। इसी प्रकार रूपकलापों की उत्पत्ति, स्थिति और भंग का विवेचन रूपकलापविभाग में उपलब्ध है।
जैन दर्शन में इस प्रकार के रूपकलापों के विषय में इतने विस्तार से चर्चा नहीं मिलती। इनका विषय बहुत कुछ इन्द्रियों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है। जैनधर्म में पुद्गल के आठ प्रकार बताये गये हैं-औदारिक, आहार, भाषा, वैक्रियक, मन, श्वासोच्छ्वास, तैजस और कार्मण। ये सभी वर्गणा प्रकार उपर्युक्त कलापों से मिलते-जुलते हैं । जीवितेन्द्रिय और चित्त का सम्बन्ध आत्मा ( श्वासोच्छ्वास ) और मन से है। कायविज्ञप्ति, आहार, वाग्विज्ञप्ति का सम्बन्ध क्रमशः औदारिक, कर्मसमुत्थान का सम्बन्ध क्रमशः औदारिक, आहार, भाषा और कार्मण वर्गणा से है। तैजस् और वैक्रियक वर्गणा बौद्धदर्शन में नहीं मिलती। जैनदर्शन की स्कन्ध-निर्माण-प्रक्रिया बौद्धदर्शन से काफी सुलझी और व्यवस्थित दिखाई देती है। इन्द्रिय
बौद्धधर्म में इन्द्रिय वह है, जो अपने संबद्ध कृत्यों में आधिपत्य बनाये रखे। जैनधर्म में भी इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों को सेवन करने में स्वतन्त्र बताया गया है। इस दृष्टि से दोनों व्युत्पत्तियाँ लगभग समान हैं। परन्तु जैनाचार्यों ने इन्द्रिय के कुछ और विशेष अर्थों को स्पष्ट किया है-२
(1) इन्द्र का अर्थ आत्मा है । अतः उसे जानने में जो निमित्त होता है, वह इन्द्रिय है। (ii) सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में जो कारण हो, वह इन्द्रिय है। (iii ) इन्द्र का अर्थ नामकर्म है, अतः नामकर्म से जो रची गई हो, वह इन्द्रिय है। ( iv ) जो प्रत्यक्ष में व्यापार करती है, वह इन्द्रिय है।। (v) जो अपने-अपने विषय का स्वतन्त्र आधिपत्य करती हों, वे इन्द्रिय हैं।
ये इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्श रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । यहाँ मन को ईषत् इन्द्रिय स्वीकार किया गया है। ये पाँचों इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । शरीर नामकर्म से रचे गये शरीर के चिह्न-विशेष द्रव्येन्द्रिय हैं। वे दो प्रकार की हैं-निवृत्ति और उपकरण । निवृत्ति का अर्थ है-रचना । इन्द्रियों के आकार रूप से अवस्थित शुद्ध आत्म-प्रदेशों की रचना को आभ्यन्तर निवृत्ति और तदाकार प्राप्त पुद्गल प्रचय को बाह्यनिवृत्ति कहते हैं। जो निवृत्ति का उपकार करता है, वह उपकरण कहलाता है। नेत्रेन्द्रिय में कृष्ण और शुक्ल मण्डल आभ्यन्तर उपकरण है तथा पलक और दोनों बरोनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी विवेचन मिलता है।
इन्द्रिय रूप से परिणत जीव को ही भावेन्द्रिय कहा जाता है । यह दो प्रकार की है-लब्धि और उपयोग । आत्मा के चैतन्य गुण का क्षयोपशम हेतुक विनाश लब्धि है और चैतन्य का परिणमन उपयोग है । भावेन्द्रिय द्रव्यपर्यायात्मक नहीं, बल्कि गुणपर्यायात्मक होती है। ये इन्द्रियां ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होती हैं । क्षयोपशम रूप भावेन्द्रियों १. "अधिपतिछैन इन्द्रियं," "इन्दट्ठ कारेतीति इन्द्रियं",-अटुसालिनी, पृ० ९९ एवं २४५ । २. धवला, १. १. १.४, पृ. १३५-१३७; सर्वार्थसिद्धि, १. १. ४; राजवार्तिक, १. १४ ।
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