Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
पूर्व मध्यकालीन भारतीय न्याय एवं दण्ड व्यवस्था स्त्रियों को तथा राजद्रोही पुत्र को देशनिर्वासन तक की सजा दी जाती थी।' तत्कालीन धार्मिक परम्परा के अनुसार स्त्रियाँ अवध्य मानी जाती थीं, अतः उन्हें मृत्युदण्ड के स्थान पर देशनिर्वासन की सजा दी जाती थी। राजा-महाराजा न्याय-प्रिय होते थे। न्याय में भेद-भाव नहीं किया जाता था। राजा ही सर्वोच्च न्यायाधिकारी था तथा अपने सामने उपस्थित किये गये अभियोग या अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनता था। कुमारपाल प्रतिबोध में सोमप्रभ सूरि ने लिखा है कि चालुक्य नरेश कुमारपाल दिन के चौथे प्रहर में राज-सभा में बैठता था, जिसमें राज्य से सम्बन्धित अन्य कार्यों के अतिरिक्त वह न्यायिक कार्य भी करता था । वसुदेवहिण्डो के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि अपराधों की जाँच के लिए राजा के पास लिखित अपील भी दी जाती थी। राजा यथासम्भव स्वयं न्याय करता था, पर अधिक कार्य के कारण 'प्राड्विवाक' या प्रधान न्यायाधीश उसका कार्य संभालते थे।६ राजद्रोह का अपराध गुरुतर था। सप्त प्रकृति ( राजा, अमात्य आदि ) के प्रति शत्रुभाव रखना महान् अपराध था और उसके लिए जीवित अग्नि में जलाने का विधान था। मनु ने राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को तथा चोरी करने वालों को उसी प्रकार का अपराधी माना है। वादी तथा उसकी सूचना के आधार पर राजा अपराधी को दण्ड देता था।९ समराइच्चकहा में स्त्री को अवध्य बताकर उसे निर्वासित करने का उल्लेख है, किन्तु याज्ञवल्क्य ने गर्भपातिकी एवं पुरुष को मारने वाली स्त्रियों को मृत्यु-दण्ड का भागी बताया है। सम्भवतः प्राकृत कथा साहित्य में स्त्रियों के प्रति उदार दृष्टिकोण का कारण जैनों की अहिंसा नीति ही है, जिसके आधार पर उन्हें अवध्य बताकर देशनिर्वासन की सजा ही पर्याप्त मान ली गई; किन्तु धर्मशास्त्रीय विधि के अनुसार स्त्रियों को भी
र अपराधों के लिए परुषों के समान दण्ड का भागी बताया गया है। मौर्यकाल में भी उचित दण्ड व्यवस्था थी। ऐसी मान्यता थी कि दण्ड देने वाला राजा सदैव पूज्य होता है। क्योंकि विधिपूर्वक शास्त्रविहित दिया गया दण्ड प्रजा को धर्म, अर्थ एवं काम से युक्त करता है।" दण्ड-व्यवस्था-चोरी
पूर्व मध्यकालीन भारतीय शासन पद्धति में साधारण से साधारण अपराध पर कठोर दण्ड की व्यवस्था थी। समराइच्चकहा में भी धर्मशास्त्रों के समान पुरुष-घातक तथा परद्रव्यापहारी को उसके जीते ही आँख, कान, नाक, हाथ तथा पाँव काटकर अंग छेद किये जाने का विधान बताया गया है।' २ मौर्यकाल में भी बलवान व्यक्ति निर्बलों को कष्ट न पहुँचाये, इसके लिए
१. समराइच्चकहा, 2, 115%; 4, 286%; 7, 643 । २. वही,5, 362: 6,560-81 । ३. अल्तेकर-प्राचीन भारतीय शासन पद्धति, पु० 150 ।
कुमारपाल प्रतिबोध, प्रस्तावना, १० 13-गायकवाड ओरियण्टल सीरीज 14, बड़ौदा 1920 । ५. वसुदेवहिण्डी, पृ० 253, 'लिहियं से वयणं संभोइयो य' ( भावनगर एडी० )। ६. अल्तेकर-प्राचीन भारतीय शासन पद्धति, पृ० 150 । ७. वृहस्पति, 17116 ।।
८. मनुस्मति, 91275 । ९. हरिहर नाथ त्रिपाठी-प्राचीन भारत में राज्य और न्यायपालिका, पु० 215 १०. याज्ञवल्क्य स्मृति, 21268 । ११. अर्थशास्त्र, 114113-यथार्हदण्डः पूज्यतेः -114114 । १२. समराइच्चकहा, 2, 117; 4, 326-27 ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org