Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ
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किसी हद तक स्वीकार करता है । किन्तु जैन दर्शन के अनुसार कोई शक्तियाँ हैं, जो उन्हें अनन्त दूरी पर ले जाने से रोकेंगी। यदि हैं तो क्या वे नष्ट नहीं हो सकती हैं ? यदि ऐसी शक्तियाँ नष्ट हो सकती हैं, तो प्रश्न होता है कि अनादिकाल से लोक-व्यवस्था क्यों बनी रही - पूर्ण रूप से अति विरल क्यों नहीं हो गई। इसका उत्तर विज्ञान कैसे दे सकता है ? वहाँ धर्म और अधर्मं द्रव्यों
मान लेने पर लोक की अनन्त आकाश के बहुमध्य भाग में एक व्यवस्थित स्थिति बन जाती है. जिसके बाहर जीव, पुद्गल की गति नहीं होने से लोक के विरल होने और नष्ट होने का प्रश्न नहीं उठता है । सिद्धान्त साधारणतः धारणाओं पर निर्भर करता है और मान्य होता है, यदि पूर्वापर विरोधादि का अभाव हो । ( द्रव्यसंग्रह १५ - १८ ) |
आकाश द्रव्य अवकाश हेतुत्व लिये है, काल वर्तना हेतुत्व लिये है । कालाणु रत्नों की राशि के समान केवल लोकाकाश में असंख्यात प्रदेशी हैं । इसकी आवश्यकता लोक के बाहर क्यों न हुई । लोक के बाहर केवल आकाश ही है, अन्य कुछ नहीं; अतएव वर्तना का वहाँ प्रश्न नहीं उठता। जीव, धर्म, अधर्मं द्रव्यों का माप भी असंख्यात प्रदेशी है, चाहे जीव में संकोच - विस्तार होता रहे । होगा ही, क्योंकि जैसा वर्तन होगा, वैसा उसमें द्रव्य समावेगा । द्रव्य, गुण और पर्यायों में द्रवित होता है । काल को छोड़कर अन्य द्रव्य अखण्ड अथवा खण्ड-खण्डरूप समूहों में विस्तारयुक्त होने से अस्तिकाय कहलाते हैं । पुद्गल द्रव्यों में इस प्रकार के समूह ( स्कन्ध) प्रदेश संख्येय, असंख्येय और अनन्त होते हैं । इन सभी तथ्यों में वैज्ञानिकता है |
जीव के असंख्यात प्रदेशों में कर्म परमाणुओं का बन्ध कितना हो सकता है - यह तथ्य तीव्र एवं मंदता के कारण चलराशि का द्योतक है। एक ओर जीव के योग, कषाय परिणामों का चलन, दूसरी ओर तदनुसार कर्म परमाणुओं की प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग, स्थिति में चलन या फलन (Variation functioning) । जैनाचार्यों ने इसके आनुपातिक चलन या फलन की विवेचना तक ही अपने को सीमित नहीं रखा, वरन् कितना चलन या फलन होगा, इसके भी नाप, माप, प्रमाण आदि स्थापित किये गये । ( द्रव्यसंग्रह २५-२६) ।
प्रदेश और समय क्रमशः आकाश एवं काल माप की इकाईयाँ हैं। जितना आकाश एक अविभागी परमाणु से घेरता है, उसे समस्त परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश कहते हैं । इसकी विचित्रता इस तथ्य में है कि एक प्रदेश में केवल एक या दो परमाणु ही नहीं, अनन्तानन्त परमाणुओं का समावेश हो सकता है। इसके आधार पर गणितीय काम्पेक्टनेस ( compactness ) अथवा संहतता की सांस्थतिक समष्टि का मापन होता है । आकाश अखण्ड है, सांतत्यक ( conti nuum ) है, जिसके परिमित भाग में केवल परिमित संख्या के प्रदेश ही माने गये हैं । यह प्रदेश जैन प्वाइन्ट ( point ) अथवा बिन्दु है । और समय क्या है ? उसकी काल विषयक परिभाषा परमाणु की गति से बँधी है । जितने काल में एक परमाणु दूसरे संलग्न परमाणु का अतिक्रमण करे, परमाणु उतने काल में १४ राजू छलांग ले सके, उसे समय माना गया है । इससे मंदतम और और तीव्रतम गति का बोध होता है । यहाँ काल में दिशा- परिवर्तन का भी प्रश्न उठता है । पर्याय परिवर्तन का यही समय है, जो कालाणुओं के वर्तन से भी लक्षित होता है । इससे छोटे काल की कल्पना नहीं है । इतने ही अखण्ड समय में परमाणु की स्थिति १४ राजू के सभी प्रदेशों में है । यह एक वैज्ञानिक तथ्य है, जिस पर सहसा विश्वास नहीं होता है । यहाँ विरोध नहीं अपितु विरोधाभास
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