Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ
कोणीय एवं रेखीय माप भी कुछ स्थानों में गृहस्थ को विभ्रम में डाल देते रहे हैं। आवश्यकता है कि इनका सम्पूर्ण विश्लेषण किया जाये। जिस प्रकार का योजन जहाँ लागू हो, वहाँ उसका यथावत् नाम दिया जाये; तब कहीं आधुनिक विज्ञान से उसकी तुलनाओं में ज्यादा अन्तर नहीं आवेगा। (त्रिलोकसार १८)।
रज्जु क्या है ? उसकी गणना असंख्यात द्वीप समुद्रों में स्थित ज्योतिष बिम्बों की संख्या पर भी आधारित है, और ऊर्ध्व लोक तथा अधोलोक की सीमाओं से भी सम्बन्धित है। इस प्रकार लोक या अन्तरिक्ष की गहराईयाँ केवल दृष्ट आकाशीय पिण्डों पर ही आधारित नहीं हैं । उस अन्तिम दूरी से भी सात राजू ऊपर की ओर तथा सात राजू नीचे की ओर विस्तृत है। मिस्र देश के हरपिदोनाप्री भी रस्सों के माप में पिथेगोरस के साध्य का उपयोग करते थे। ऊपर की ओर स्वर्ग ही होंगे, नीचे की ओर नर्क ही होंगे-यह सापेक्ष तथ्य ही है। गोल पृथ्वी के लिए दिशाओं की अवधारणा भी सापेक्ष ही होगी। इस प्रकार लोकाकाश एक ऐसी कल्पना का चित्र बना, जो प्रमाणों को बैठा सके, आत्मा को बैठा सके, उसकी उपलब्धियों को बैठा सके, साथ ही ज्योतिलोक को दिग्दर्शित कर सके । सभी कुछ करतल आमलकवत् हो सके । (त्रिलोकसार ११०)।
. किस सीमा तक भौतिक सुख हो सकता है और भौतिक दुःख, इसका भी चित्रण लोक के नक्शे में किया गया । उसे भी ऊँचाई और गहराई दी गई। सातवा नरक राजू नीचे और उससे भी नीचे नित्यनिगोद के दुःख की गहराई । ऊपर की ओर आत्मा की उपलब्धियों सहित सुख सोलहवें स्वर्ग तक
और फिर अहमिन्द्रों और उससे भी सुख की अधिक ऊंचाई सिद्धों की। यदि इसे दिशा निरपेक्ष न माने, ज्यामितीय आधार को गुणादि का आधार मानें तो वह आत्मलोक होगा। इस प्रकार अध्यात्मवाद और द्रव्यवाद आदि अनेक रूप में लोक स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया । (त्रिलोकसार १४४-२०३, ४५१-५६० )। श्रुत जहाँ तक, जिस रूप में, प्रतीकबद्ध होकर बोध दे सका, आत्मोन्नति में वहाँ तक प्रयास होते रहे। ज्ञानलोक की विवेचना आगे करेंगे। किन्तु इसके पूर्व कुछ ज्योतिष एवं भूगोल की भी चर्चा कर ली जाये।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, जैनों की ज्योतिष सम्बन्धी गणनायें रहस्यमयी थीं। एक सूर्य के समक्ष और दूसरा चन्द्रादि को आमने-सामने चलाकर सम्भवत: वे ग्रहणादि की गणनाएँ करते रहे । चीन, बेबिलान आदि कुछ अन्य देशों में इसी प्रकार की पद्धति प्रचलित थी। पथ को दुगुना कर उसे वृत्तों अर्थात् अक्षांशों और देशांशों में गगनखण्डादि रूप में विभाजित कर प्रायः १००० वर्षों तक पञ्चवर्षीय युगवाला पञ्चांग जारी रहा। इसमें वेदांग ज्योतिष के ज्ञान के सिवाय नये तथ्य, अयनादि के गणन डाले गये। चन्द्र और सूर्य की चालों के पञ्चांग पूर्ण रूप से मिलते हैं, किन्तु ग्रह-गमन सम्बन्धी सामग्री विनष्ट हो गई । यतिवृषभ (पाँचवीं सदी ) ने इस बात का उल्लेख किया है।
जैन धर्म ग्रन्थों में यूनानियों एवं अन्य भारतीय ज्योतिषियों की ज्योतिष पद्धति प्रवेश नहीं कर सकी । धर्म में सर्वज्ञता का अगम्य विश्वास जैन आचार्यों को पूर्व स्वीकृत पद्धति से विचलित
२. सूर्य गमन के लिए देखिये,
Jain, L.C.-On the Spiro-elliptic Motion of the Sun implicit in the, Tiloyapannatli, I.J. H. S., vol. 13, no.1, 1978, pp. 42-49.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org