Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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देवल धर्मसूत्र में ऐश्वर्यों का विवरण
१०१ सूत्रों के अनन्तर दिये गये ९ श्लोकों में योग की विधि के पालन से प्राप्य लाभ एवं गुणों का विवरण है । प्रथम पाँच श्लोकों में साहित्यिक शैली में दुर्बल और बली योगियों के बीच अन्तर को उभारा गया है। अग्नि की उपमा के माध्यम से यह कहा गया है कि एक दुर्बल योगी योग के भार से आक्रान्त होकर नष्ट हो जाता है, जबकि वह योगी, जिसकी शक्ति योग के द्वारा वर्धित है, सम्पूर्ण संसार का संशोधन कर सकता है। जिस प्रकार बलहीन व्यक्ति धारा के द्वारा बहा लिया जाता है, उसी प्रकार दुर्बल व्यक्ति विषयों के द्वारा अवश कर दिया जाता है, जबकि बली योगी विषयो पर नियन्त्रण पाता है। योग की शक्तियों से युक्त योगी प्रजापति, ऋषि, देव और महाभूतों में प्रवेश करता है। यम, अन्तक अथवा मृत्यु का उस पर कोई वश नहीं है। सहस्रों प्रकार के रूपों को धारण करके वह पृथ्वी पर विचरण करता है। कुछ के द्वारा वह विषयों को प्राप्त करता है और कुछ के द्वारा कठिन तप करता है। अन्त में वह उसको त्याग देता है।
ये ९ श्लोक महाभारत के पूना संस्करण में शान्तिपर्व के अध्याय २८९ के श्लोक १९ से २७ तक प्रायः पूर्णरूपेण समान हैं । निःसन्देह कुछ अत्यल्प महत्त्व के पाठ भेद मिलते हैं। ऐसा अपेक्षित भी है क्योंकि अनेक शताब्दियों की लम्बी अवधि में प्रतिलिपिकर्ताओं के द्वारा ऐसे अन्तर उपस्थित होने की स्वाभाविक सम्भावना है। महाभारत की हस्तलिखित प्रतियों के विश्लेषण से उसके अनेक पाठ-संस्करण ज्ञात होते हैं। इनमें महाभारत के विकास के विभिन्न चरणों में पाठ में किये गये परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। एक ही चरण, वर्ग और पाठ-संस्करण की विभिन्न प्रतिलिपियों में भी परस्पर अन्तर दिखलाई पड़ता है। अतः देवल में प्राप्य श्लोकों का पूना संस्करण के श्लोकों से पूर्ण साम्य किसी भी प्रकार अपेक्षित नहीं हो सकता। हमने आगे देवल धर्मसूत्र ( = देवल०) और महाभारत (= महा० ) के श्लोकों के पाठों की तुलना को है।
श्लोक १-"हि नु प्रभो' के स्थान पर महा० में "अबलः प्रभो" है ( मोक्षप्रकाश में पाठ है "-गबल प्रभोः" । महा० में भी "प्रभो" के स्थान पर "प्रभोः" पाठान्तर मिलता है ) ।
श्लोक २-महा० में "यथा" के स्थान पर “यदा", "बहिर" के स्थान पर "बह्नि", "पुमान्" के स्थान पर “पुनः" और "महीमिमाम्" के स्थान पर “महीमपि" पाठ है। इनमें से "यथा" और "महीमिमाम्" महा० में पाठान्तर के रूप में मिलते हैं। महा० के "पुनः" पाठ का समर्थन मोक्षप्रकाश से और कृत्यकल्पतरु के मोक्षकाण्ड की दो प्रतिलिपियों से होता है। अतः के० वी० आर० ऐयाङ्गर ने "पुमान्" पाठ को क्यों स्वीकार किया, यह समझने में हम असमर्थ हैं ।
श्लोक ३-महा० में "न त्वजात-' के स्थान पर "तद्वंजात" मिलता है। महा० में अन्य परिवर्तन हैं '-तजो' के स्थान पर "-तजा" और "संशोधयेत्" के स्थान पर “संशोषयेत्" । इनमें से अन्तिम दो देवल० में उपलब्ध पाठ महा० में उल्लिखित पाठान्तरों में प्राप्य हैं।
श्लोक ४-"योगी" और "क्रियते" के स्थान पर महा० में क्रमशः “योगो" और "ह्रियते" पाठ मिलते हैं। इसमें से देवल० का केवल "योगी" पाठ ही पूना संस्करण के पाठान्तरों में उल्लिखित है।
श्लोक ५-"रावणः" के स्थान पर महा० में "वारणः" पाठ है, जो निश्चय ही अधिक उपयुक्त है । महा० की किसी प्रतिलिपि से देवल० का पाठ समर्थित नहीं है।
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