Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
लक्ष्मीचन्द्र जैन
न कर सका और वास्तव में उस पद्धति में अपने आप मौलिकता तो थी ही, ग्रहों के संचरण का भी पञ्चाङ्ग उसी वृत्त पद्धति से समाविष्ट किया जा सकता था, किन्तु इस ओर प्रयास यतिवृषभ के पश्चात् किये ही नहीं गये और न यह जानने का प्रयास हुआ कि ग्रहों की चाल का जैनागम में क्या विवरण रहा होगा?
पुनः चित्रा पृथ्वी क्या है ? मेरु पर्वत किस निर्देश का द्योतक है ? चित्रा पृथ्वी से ऊँचाई का क्या तात्पर्य है ? इन प्रश्नों को विगत वर्षों में कई संगोष्ठियों में प्रस्तुत किया गया है। उनके उत्तर भी निकाले गये । मेरु पर्वत एक खगोलीय अक्ष के रूप में निर्देशांकों का चित्रण करता रहा होगा, जहाँ भी इसकी स्थिति रही हो, वह बीचों-बीच ही स्थित होगी और कहीं उत्तर दिशा की ओर इसका प्रेक्ष्य रहा होगा। चित्रा समतल को भूमध्य रेखीय समतल माना जाता रहा हो, जिससे ज्योतिबिम्बों की ऊचाईयाँ योजन के कोणीय माप देती रही हों। शेष विवरण वैज्ञानिक है, पञ्चांग में अन्तर्भूत है।
किन्तु चन्द्र और सूर्य आदि की देवांगानायें उस प्राचीन काल की याद दिलाते हैं, जब दैविक और आधिदैविक शक्तियों की मान्यता थी। उनमें वैज्ञानिक तथ्यों का प्रवेश नहीं हुआ था। क्या जैन मत में इन अगणनीय शक्तियों की मान्यता थी और वह भी किस सीमा तक ? यह विचारणीय है। जैन मान्यता में एक द्रव्य की दूसरे द्रव्य पर्यायों पर नैमित्तिक प्रभाव माना गया है, जो उपादान द्रव्य की योग्यता पर निर्भर करता है । द्रव्य की द्रव्यता पर त्रिकाल में कोई प्रभाव नहीं होता है। जीव जीव ही रहेगा, काल काल ही, आकाश आकाश ही, पुद्गल पुद्गल ही रहेंगे। उनके गुण भी वही रहेंगे । बात केवल पर्याय तक अटकती है, जो समयवर्ती होती है। द्रव्य स्वातन्त्र्य में पर्याय परिवर्तन स्वयं व्य की योग्यता से होता है। व्यावहारिक भौतिक विज्ञान कारणता चाहता है और कारणता में कम से कम एक समय का अन्तर चाहता है। साथ ही पारस्परिक सम्बन्ध स्थिति चाहता है। उसी के आधार पर विज्ञान आगे की घटना का अथवा विकारी पर्याय का फलादेश करना चाहता है। फिर पर्याय समूह का भी फलादेश चाहता है। अनेक पुद्गल द्रव्य का पिण्ड पर्याय समूह का पिण्ड बन जाता है और समूह में ही उसका फलादेश अपेक्षित होता है । जीव और पुद्गल सम्बन्धी कर्मपिण्ड का फलादेश दिया जाता है। परिस्थितियाँ बतलाई जाती हैं, उनमें प्राणी की योग्यता के अनुसार योग और कषायानुसार तथा आत्मा के स्वतन्त्र परिणामानुसार क्या होगा ? यह फलादेश कर्म ग्रन्थों में मिलता है। किन्तु यह सभी अन्त सहित क्षणभंगुर निस्सार, सुखाभासी होने के कारण एक नवीन विज्ञान की ओर झुकाव होता है। वह है-वीतराग विज्ञान । मोह का अभाव जितने अंशों में होता जाता है, उतने अंशानुपात में ज्ञान चेतना की जागृति और आत्मा के निर्मल परिणामों की शक्ति एवं समृद्धि बढ़ती है। अस्तु, देव, देवियाँ, नारकी आदि सभी निज कर्मानुसार ही संचरणादि करते हैं। जैनाचार्यों की दैविक और आधिदैविक शक्तियों की यह अवधारणा अन्ध विश्वास के लिए नहीं है।
___ राहु कोई देव नहीं हैं, नाम के विमान हैं। वे भी दिन राहु, पर्व राहु, ऋतु राहु, जो चन्द्रकलाच्छादन, ग्रहण, संवत्सरादि के कलन में उपयुक्त होते हैं ।
__ असंख्यात द्वीप समुद्र क्या हैं, उनके दिग्दर्शन का अभिप्राय क्या है ? एक तो लोक की सीमा और उसमें करोड़ों ज्योतिबिम्बों का, स्थिर एवं अस्थिर व्यवस्था के अभिप्राय से इतने द्वीप समुद्रों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org