Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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लक्ष्मीचन्द्र जैन
कैसे होगा? यह कारणता का नियम है। सिद्ध जीवों के शुद्ध भाव होते हैं, वे पौद्गलिक यन्त्रों के परिवर्तन में निमित्त नहीं होते हैं । इससे कारणता का नियम प्रकट हो जाता है । (द्रव्यसंग्रह ९)। .
___ जीव के विकास सम्बन्धी तथ्य हैं कि इन्द्रियों का क्रमशः विकास एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होता है। स्पर्शन् इन्द्रिय वाले जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति काया वाले स्थावर होते हैं । फिर दो, तीन आदि वाले जीव त्रस कहलाते हैं। एक से चार इन्द्रियवाले असंज्ञी अर्थात् अविकसित मस्तिष्क (brain) अथवा मन-रहित होते हैं। एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म होते हैं, जैसे वाइरस, बेक्टीरिया आदि । पुनः वे सभी पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं। इस प्रकार विज्ञान की ओर जागृत ये मान्यताएँ क्रमशः अध्ययन का विषय बनती हैं । (द्रव्यसंग्रह १०-१३)।
पुद्गल को मेटर (matter) कहा जा सकता है। किन्तु पुद्गल परमाणु एक विशिष्ट तथ्य है, उसे अल्टीमेट पार्टिकल या कान्स्टीट्यून्ट (ultimate particle or Constituent) कहा जा सकता है। आज का विज्ञान इस तक पहुंचने का अभी दावा नहीं कर सका है और इसके सम्बन्ध में विभिन्न मत तथा सिद्धान्त प्रस्तुत किये जा सकते हैं। क्या जैन परमाणु ऊर्जा में बदल जाता है ? उत्तर है-नहीं। परमाणु की ऊर्जा की सतहें अनन्त हो सकती हैं, उनमें परिवर्तन हो सकते हैं, वह परमाणु का गुण है, उनके अंश हो सकते हैं किन्तु ऊर्जा, परमाणु नहीं हो सकती। परमाणु से स्कन्ध बनते हैं। उनके रूप, शब्द, बन्ध सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप आदि हो सकते हैं-ये पर्याय रूप हो सकते हैं, किन्तु परमाणु स्वयं ऊर्जा नहीं हो सकता है, यह मान्यता है । शक्ति वस्तु अलग है, परमाणु वस्तु अलग है । (द्रव्यसंग्रह १६) । "गुणपर्यायवद् द्रव्यं" इसका आधार है।
अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य के सिवाय धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य, काल-द्रव्य खगोल विद्या में आते हैं। धर्म, अधर्म अमूर्त हैं, अदृष्ट हैं । किन्तु उनका अस्तित्व है, जैसे ईथर और इनशिया का। ये दोनों जीव और पुद्गल के क्रमशः गमन और स्थित होने में सहकारी हैं, जैसे मछली के गमन के लिए तालाब का पानी और यात्री को विश्राम हेतु स्थित करने में पेड़ की छाया । गति और स्थिति में जीव और पुद्गल हो सक्रिय तत्त्व हैं, किन्तु धर्म, अधर्म सक्रिय कारण नहीं, वे केवल उदासीन कारण हैं। आइंस्टाइन ने आकाशकाल की ज्यामिती द्वारा धर्मअधर्म जैसे ईथर के अस्तित्व को भौतिकी से बाहर कर दिया। क्योंकि ईथर को पौद्गलिक गुण देने पर पृथ्वी की गति नहीं प्राप्त की जा सकी। अतः यह मानना पड़ा कि प्रकाश की महत्तम गति चलती हई पृथ्वी पर से अपनी गति किसी भी दिशा में नहीं बदलती है। इसलिए ईथर सम्बन्धी मान्यता एक भुलावा मात्र है, क्योंकि उसमें मैटर के कोई गुण नहीं हैं। ईथर के बिना माने भौतिकी की गणनाएँ, घटनाओं की व्यवस्था जम सकती है। क्या जैनागम में धर्म-अधर्म को बिना माने ऐसी कोई व्यवस्था जम सकती है ? उत्तर है-नहीं। अमूर्त मान लेने पर पौद्गलिक गुणों को देने की जरूरत तो नहीं है, किन्तु लोक-व्यवस्था का फिर क्या होगा? लोक आकाश में हैं, अलोक भी आकाश में है । यदि लोक में जीव और पुद्गल ही होते तो क्या होता ? बिना काल के परिवर्तन न होता। बिना धर्म द्रव्य के गति नहीं होती। बिना अधर्म द्रव्य के स्थित न होती। धर्म-अधर्म द्रव्य की मान्यता इस रूप में वैज्ञानिक है कि वह लोक के अनन्त आकाश में पूर्ण बिखराव का नियन्त्रण करती है । आज का विज्ञान लोक की सम्पूर्ण अनन्त आकाश में बिखराव की स्थिति को
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