Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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भागचंद जैन भास्कर श्रोत्रप्रसाद कर्णकुहर के अन्तर्भाग में मुद्रिका सदश एक अत्यन्त निगढ़ स्थान है, जहाँ लोम सदृश तन्तु रहते हैं, उस स्थान पर श्रोत्रप्रसाद कलाप समूह रहता है। नासिका के अन्तर्भाग में अजाक्षुर सदृश एक स्थान विशेष में अनेक घ्राणप्रसाद कलाप रहते हैं। केश, लोम आदि ३२ कुत्सित कोट्टास एवं अकुशल पाप धर्मों का स्थान काय है। कायप्रसाद सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहता है।
ये पाँचों प्रसाद रूप तृष्णा मूलक कर्मों से उत्पन्न होते हैं और अपने आधारभूत पुद्गल को रूपादि आलम्बनों की ओर आकर्षित करते हैं। इसलिए कामभूमि में रहने वाले सत्व इनके आकर्षण से रूपावलम्बन का दर्शन, श्रवण, घ्राण, आस्वादन और स्पर्श कराते हैं। ये पाँचों इन्द्रियाँ चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञानादि के आश्रयभूत होती हैं।
ये सभी रूप अहेतुक ( अलोम आदि अव्याकृत हेतुओं से असंप्रयुक्त ), सप्रत्यय (कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार में से किसी एक प्रत्यय से उत्पन्न होने वाले ), सास्रव ( लोम, दृष्टि एवं मोह के साथ उत्पन्न होने वाले ) संस्कृत, लौकिक, कामावचर, अनालम्बन तथा अप्रहातव्य हैं। इनमें प्रसाद नामक पाँच प्रकार के रूप आध्यात्मिक हैं। ये आध्यात्मिक रूप आत्मा को उद्दिष्ट या अधिकृत करके प्रवृत्त होते हैं अर्थात् आत्मा के रूप में मिथ्या उपादान करके व्यवहृत होते हैं। शेष २३ रूप बाह्य रूप हैं । वे स्कन्ध के उपकारक नहीं होते हैं ।
प्रसाद एवं हृदय नामक छह प्रकार के रूपों को 'वस्तुरूप' कहते हैं। ये चित्त-चैतसिकों के आश्रय होते हैं। शेष रूप अवस्तुरूप होते हैं। प्रसाद रूप एवं विज्ञप्तिद्वय नामक सात प्रकार के रूप. द्वाररूप हैं, क्योंकि प्रसादरूप चक्षुद्वार आदि वीथियों को उत्पन्न करते हैं तथा विज्ञप्तिद्वय कर्म के उत्पत्ति के कारण (द्वार ) होते हैं । शेष रूप अवद्वार रूप हैं। प्रसार (१) भाव (२) तथा जीवित (१) नामक आठ प्रकार के रूप इन्द्रिय रूप हैं। इनका अपने-अपने कृत्यों पर आधिपत्य होता है। शेष अनिन्द्रिय रूप हैं। प्रसाद एवं विषय नामक बारह प्रकार के रूप औदारिक रूप (स्पष्ट प्रतिभासित होने वाले), सन्ति के रूप (ज्ञान द्वारा प्रतिभासित होने वाले) तथा सप्रतिद्यरूप ( अन्योन्य संघट्टन करके वीथिचित्रों को उत्पन्न करने वाले ) होते हैं । शेष रूप सूक्ष्म, दूरेरूप तथा अप्रतिद्यरूप हैं । कर्मज रूप 'उपादिष्ण' ( उपादत्त ) रूप हैं। वे तृष्णा, दृष्टि आदि लौकिक कुशल या अकुशल कर्मों का आलम्बन करते हैं। कर्मज रूपों से भिन्न चित्रज, ऋतुज एवं आहारज रूप 'अनुपादिन्न' रूप हैं। रूपायतन सन्निदर्शन रूप ( रूपालम्बन ) है। शेष अनिदर्शन रूप हैं। चक्षुष एवं श्रोत्र दोनों स्वसमीप अप्राप्त ( अघट्टित ) आलम्बन का ग्रहण करते हैं तथा घ्राण, जिह्वा एवं काय नाम प्रसाद रूप सम्प्राप्त आलम्बन का ग्रहण करते हैं। इसलिए इन्हें गोचर ग्राहक रूप कहा जाता है । शेष रूप अगोचर ग्राहक हैं। वर्ण, गन्ध, रस, ओजस् एवं भूतचतुष्क ये आठों रूप अविनिर्भोगरूप (पृथक्-पृथक् उत्पन्न होकर पिण्डीभूत होकर अवस्थित रहते हैं। शेष रूप विनिर्भोग रूप हैं।
कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार ये चारों तत्त्व रूप के उत्पादक कारण हैं। इन चारों से किस
१. विशेष देखिये, परमत्थदीपिनी, पृ० २३३-३४; विसुद्धिमग्ग, पृ० ३०८-११ । २. विस्तार से देखिये, अभिधम्मत्थसंगहो का छठा उद्देश ।
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