Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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श्वेताम्बर जैन साहित्य की कुछ अनुपलब्ध रचनायें
मधुसूदन ढांको समदृष्टा एवं स्पष्टवाक अन्वेषक (स्व०) पं० नाथूराम प्रेमी ने "कुछ अप्राप्य ग्रन्थ" नामक छोटे, किन्तु उपयोगी लेख में, सुमति वज्रनन्दि, महासेन और प्रभजन की सम्प्रति अप्राप्त रचनाओं पर विचार किया है।' इन रचयिताओं के अलावा कुछ और भी प्राचीन दिगम्बर जैन साहित्यिक हुए हैं, जिनके नाम तो हम जानते हैं, परन्तु उनकी कृतियां अनुपलब्ध हैं । ठीक यही स्थिति श्वेताम्बर साहित्य की भी है। यद्यपि हमें श्वेताम्बर वाङ्मय विविध विधाओं एवं विपुल राशि में उपलब्ध है, फिर भी जो रचनायें आज उपलब्ध नहीं हैं, उनके विषय में कहीं ग्रन्थकार का तो कहीं ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है और कहीं-कहीं उक्त उल्लेखों सहित अवतरण भी मिलते हैं। कई स्थानों पर केवल अवतरण ही मिलते हैं; ग्रन्थ अथवा उसके कर्ता का उल्लेख नहीं मिलता है। उपर्युक्त आधारों पर विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर वाङ्मय की भी अनेक कृतियाँ काल के गर्भ में समा चुकी हैं।
श्वेताम्बर परम्परा में आगम ग्रन्थों एवं आगमिक व्याख्यायें (नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टीका आदि ) के अतिरिक्त दर्शन, न्याय, शब्दशास्त्र, चरित्रकाव्य, दूतकाव्य, नाटक आदि विविध विषयों पर भी बहुत कुछ लिखा गया था, जो आज प्राप्त नहीं है। यदि इन सबके विषय में खोज की जाय तो एक विशाल और उपयोगी पुस्तक की रचना सम्भव है। यहाँ तो केवल मध्यकाल के पूर्व के कुछ दार्शनिक धर्मप्रवण या नीतिपरक साहित्य के सम्बन्ध में ही विचार किया जायेगा।
जैन दार्शनिक साहित्य में अग्रचारि, महामति सिद्धसेनदिवाकर ( ईस्वी ४थी-५वीं शताब्दी) की सभी रचनायें आज उपलब्ध नहीं हैं। जो उपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में भी कुछ गवेषकों को धारणा है कि ये उनकी कृतियाँ नहीं हो सकतीं। यहाँ तो हम, सिद्धसेन दिवाकर के बाद के श्वेताम्बर लेखकों की रचनाओं के विषय में ही विचार करेंगे।
मल्लवावि क्षमाश्रमण सिद्धसेन दिवाकर के अपूर्व दार्शनिक-प्राकृत ग्रन्थ सन्मतिप्रकरण पर द्वादशारनयचक्रका र १. जैन साहित्य और इतिहास, संशोधित साहित्य माला, प्रथम पुष्प, द्वितीय संस्करण, बम्बई १९५६, पृ०
४१८-४२२ । २. हमारे एक मित्र हाल ही में इस विषय पर कार्य कर रहे हैं। उनका यह प्रकाशन प्रतीक्षित है। ३. आगमिक चूणियों में, हरिभद्र सूरि की रचनाओं में, और बाद के वृत्यादि साहित्य में विविध विषयों पर __ ऐसे अनेक अवतरण मिलते हैं, जिनके मूल स्रोत की संख्या प्रथम दृष्टि से भी बहुत ही विशाल मालूम
होती है। ४. जैसे कि न्यायावतार, और द्वात्रिशिका क्रमांक २१ ।
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