Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
३६
१. भूत रूप ४
२. प्रसाद रूप ५
३. गोचर रूप ५
४. भाव रूप २
५. हृदय रूप १ ६. जीवित रूप १
७. आहार रूप १
८. परिच्छेद रूप १
९. विज्ञप्तिरूप २
१०. विकार रूप ३
११. लक्षण रूप ४
भागचंद जैन भास्कर
पृथ्वी, अप्, तेज और वायु चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और काय
रूप, शब्द, गंध, रस और स्पृष्टव्य स्त्रीत्व और पुरुषत्व
हृदय वस्तु
जीवितेन्द्रिय ( कर्मज रूपों की आयु )
कवलीकार आहार
Jain Education International
आकाशधातु
काय एवं वाग्विज्ञप्ति
निष्पन्न रूप
लघुता, मृदुता, कर्मष्यता व विज्ञप्तिद्वय अनिष्पन्न रूप उपचय, संतति, जरता एवं अनित्यता
वसुबन्धु ने रूप के ११ प्रकार एक अलग ढंग से दिये हैं-५ इन्द्रिय, १ इन्द्रियों के विषय और १ अविज्ञप्ति | उन्होंने इसके २० प्रकार भी बताये हैं
नील, लोहित, पीत और अवदात
१. मूल जाति के वर्ण ४ २. संस्थान ८
दीर्घ, ह्रस्व, वृत्त, परिमण्डल, उन्नत, अवनत, शात (सम ) और विशात (विषम ) |
३. वर्ण ८
अभ्र, धूम, रज, महिका ( वाष्प ), छाया, आतप, आलोक और अन्धकार ।
कुछ आचार्य 'नभस्' को भी वर्ण मानकर उसकी संख्या २१ कर देते हैं । सौत्रान्तिक संस्थान और वर्ण को पृथक नहीं मानते, जबकि वैभाषिक मानते हैं । कुछ वैभाषिक आचार्य आतप और आलोक को ही वर्णं मानते हैं, क्योंकि नील, लोहित आदि का ज्ञान दीर्घं, ह्रस्व आदि आकार के रूप क्योंकि एक ही द्रव्य उभयथा
में दिखाई देता है । सोत्रान्तिकों के अनुसार यह मान्यता सही नहीं । कैसे हो सकता है और वह वर्ण संस्थानात्मक कैसे हो सकता है ?
जैनधर्म में इन महाभूतों को 'स्कन्ध' कहा गया है । स्कन्ध सामान्य संज्ञा है । बौद्धधर्म इसके ही आश्रय से चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा एवं काय को उत्पन्न मानता है, जिन्हें उपादाय रूप कहा गया है। जैन-बौद्धधर्म में इन्हें 'पंचेन्द्रिय' भी कहा जाता है । रूप, रस, गंध, शब्द तथा अप् धातु वर्जित भूतत्र संख्यात नामक स्पृष्टव्य को "गोचर" रूप कहा है। जैनधर्म में इनमें से कुछ पुद्गल के लक्षण के रूप में आ जाते हैं और कुछ पुद्गल की पर्यायों के रूप में अर्न्तभूत हो जाते हैं ।
चार भूत रूप, ५ उपादाय रूप, ५ गोचर रूप, २ भाव रूप, हृदय रूप, जीवित रूप व आहार रूप, ये अठारह प्रकार के रूप स्वभाव रूप, लक्षण रूप, निष्पन्न रूप, रूपरूप और संघर्षन रूप होते हैं । यहाँ सभाव रूप से द्रव्यवाचक है, परमार्थ रूप से वह सत् स्वभावी है । परन्तु यहाँ परमार्थ रूप से आकाशादि का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया । इन रूपों का लक्षण अनित्यता, दुःखता, अनात्मता तथा उपचय, संतति, जरता नामक उत्पाद, स्थिति और भङ्ग है । आकाशादि में ये लक्षण नहीं पाये जाते । अतः बौद्धधर्म में उन्हें 'अलक्षण रूप' माना गया है । परन्तु जैनदर्शन में आकाश को एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org