Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कानजी भाई पटेल
उन्होंने प्रथम दो ज्ञानों को परोक्ष और शेष तीन को प्रत्यक्ष कहा है। यद्यपि उन्होंने अपने तत्वार्थभाष्य में 'चतुर्थविधमित्यके' कहकर चार प्रमाणों का अभिमत दिया है। परन्तु जिस प्रकार पाँच ज्ञान को परोक्ष एवं प्रत्यक्ष-इन दो प्रमाण-भेदों में सूत्र द्वारा माना गया है, उसी प्रकार इन पाँच ज्ञान को प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार प्रमाणों में नहीं माना गया है । भाष्य में भी इसका उल्लेख नहीं है। इसका कारण यह हो सकता है कि प्रमाण के दो भेदों की प्रथम प्रकार की तार्किक पद्धति ही जैन दर्शन को विशेष अनुकूल है। चार प्रमाणों की दूसरी ताकिक पद्धति आगम में निर्दिष्ट होने पर भी मूलतः यह दूसरे दर्शनों की है। तत्त्वार्थसूत्र की तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के प्रथम प्रकरण में मति और श्रुत को परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष रूप में वर्णित किया है।
इस प्रकार आगमिक और तार्किक पद्धति के द्विविध प्रमाण का समन्वय हुआ है, परन्तु चतुर्विध वर्गीकरण का दूसरा प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है। जैनेतर दार्शनिक विद्वान् इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं, जबकि जैन विद्वान् मति एवं श्रुत दोनों को परोक्ष कहते हैं। इसका पूर्णतः समाधान न तो उमास्वाति और कुन्दकुन्द ने ही किया और न नन्दीसूत्रकार और अनुयोगद्वार-सूत्रकार ने ही किया। इस बात का स्पष्ट निराकरण परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों में सर्वप्रथम जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और दिगम्बर आचार्यों में भट्टारक अकलङ्क ने किया है। क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक में उक्त प्रश्न का निराकरण करते हुए कहा है कि इन्द्रियजन्य मतिज्ञान, जो प्रत्यक्ष कहा गया है, उसे सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष समझना चाहिए। भट्टारक अकलङ्क ने अपनी लघीयस्त्रयी में स्पष्टतः उल्लेख किया है कि प्रत्यक्ष के मुख्य और सांव्यावहारिक-ऐसे दो भेद हैं । उसमें अवधि आदि तीन ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष और इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष समझना चाहिए। दोनों के कथन का स्पष्ट आशय यही है कि जैन दर्शन ने तात्त्विक दृष्टि से अवधि, मनःपर्याय और केवल-इन तीन ज्ञान को प्रत्यक्षरूप में माना है। मति और श्रुत वस्तुतः परोक्ष होने पर भी उनमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है पर यह तात्त्विक दृष्टि से नहीं, इसमें लोकव्यवहार की स्थूल दृष्टि ही है। तात्त्विक दृष्टि से तो, यह ज्ञान श्रुतज्ञान की तरह परोक्ष ही है। इन दोनों आचार्यों का यह स्पष्टीकरण इतना असन्दिग्ध है कि आज तक के परवर्ती किसी ग्रन्थकार ने उसमें संशोधन या परिवर्धन करने की आवश्यकता नहीं समझी।
क्षमाश्रमण के बाद प्रस्तुत विषय के श्वेताम्बर अधिकारी विद्वानों में चार आचार्य उल्लेखनीय हैं-जिनेश्वर, वादिदेवसूरि, आचार्य हेमचन्द्र और उपाध्याय यशोविजय । भट्टारक अकलङ्क के पश्चात् दिगम्बर आचार्यों में माणिक्यनन्दि, विद्यानन्दि आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । दोनों ही सम्प्रदायों के इन आचार्यों ने अपनी-अपनी प्रमाणमीमांसा-विषयक कृतियों में बिना किसी परिवर्तन के लगभग एक ही प्रकार से अकलङ्ककृत शब्द-योजना पर ही ज्ञान का वर्गीकरण स्वीकार किया है । इन सभी ने प्रत्यक्ष के मुख्य और सांव्यावहारिक, यह दो भेद किये हैं। मुख्य में अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को और सांव्यावहारिक में मतिज्ञान को लिया है। परोक्ष के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम इन पाँच भेदों में प्रत्यक्ष को छोड़कर सभी प्रकार के ज्ञान के भेदोपभेदों को समाहित कर लिया है। इस प्रकार ज्ञान एवं प्रमाण का सम्पूर्ण समन्वय सिद्ध
होता है।
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