Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में
भिखारी राम यादव हमारी भाषा विधि' और 'निषेध' से आवेष्टित है । हमारे सभी प्रकथन 'है' और 'नहीं है' इन दो ही प्रारूपों में अभिव्यक्त होते हैं। भाषाशास्त्र प्रकथन के 'विधि' और 'निषेध' इन दो ही मानदण्डों को अपनाता है। किन्तु जैनदर्शन 'विधि' 'निषेध' के अतिरिक्त एक तीसरे विकल्प को भी मानता है, जिसे अवक्तव्य कहते हैं। जैनदर्शन की अवधारणा है कि वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं। प्रत्येक वस्तु सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरुद्ध धर्मों का पुंज है। इन परस्पर विरुद्ध धर्मों का युगपत् प्रतिपादन 'विधि' और 'निषेध' रूपों से असम्भव है, क्योंकि भाषा में ऐसा कोई क्रियापद नहीं है, जो वस्तु के किन्हीं दो धर्मों का युगपत् प्रतिपादन कर सके । इसीलिए जैनदर्शन में एक तीसरे विकल्प की कल्पना की गयी है, जिसे 'अवक्तव्य' कहा जाता है। इस प्रकार स्यादस्ति (विधि), स्यान्नास्ति (निषेध) और स्यात् अवक्तव्य (अवाच्य)-ये जैन दर्शन के तीन मौलिक भंग हैं। इन्हीं तीन मूलभूत भङ्गों से जैनदर्शन में चार यौगिक भङ्ग तैयार किये गये हैं। तीन मूल और चार यौगिक भङ्गों को मिलाने से सप्तभङ्गी बनती है, जो निम्न हैं
१. स्यात् अस्ति। २. स्यात् नास्ति । ३. स्यात् अस्ति च नास्ति । ४. स्यात् अवक्तव्य ५. स्यात् अस्ति च अवक्तव्य । ६. स्यात् नास्ति च अवक्तव्य ।
७. स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य । अब प्रश्न यह है कि क्या सप्तभङ्गी के ये सातों भङ्ग तर्कतः सत्य हैं ? क्या इनकी सत्यता, असत्यता जैसी दो ही कोटियाँ हो सकती हैं, जैसा कि सामान्य तर्कशास्त्र मानता है ? क्या ये तार्किक प्रारूप (Logical Form) हैं ? क्या इन भङ्गों का मूल्यांकन संभव है ? आदि । किन्तु इतना तो निर्विरोध सत्य है कि जैन-सप्तभङ्गी एक तार्किक प्रारूप है। उसके प्रत्येक भङ्ग में कुछ न-कुछ मूल्यवत्ता है । इसलिए सप्तभङ्गी की आधुनिक बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में विवेचना आवश्यक है।
सर्वप्रथम, सप्तभङ्गी द्वि-मूल्यात्मक (Two-valued) नहीं है। इसलिए इसका विवेचन द्वि-मल्यीय तर्कशास्त्र (Two-valued Logic) के आधार पर करना असंभव है; क्योंकि द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र सत्य और असत्य (Truth and False) ऐसे दो सत्यता मूल्यों पर चलता है। जबकि जैन-सप्तभंगी में असत्यता (Falsity) की कल्पना नहीं है, यद्यपि उसके प्रत्येक भङ्ग में आंशिक सत्यता है, किन्तु उसका कोई भी भङ्ग पूर्णतः असत्य नहीं है । दूसरे, द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र के दोनों मानदण्ड निरपेक्ष हैं, किन्तु जैन तर्कशास्त्र इस धारणा के विपरीत है अर्थात् जैन तर्कशास्त्र के अनुसार जो
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