Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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भिखारी राम यादव वस्तुतः ये अस्तित्व और नास्तित्व एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म हैं, जो अबिनाभाव से प्रत्येक वस्तु में विद्यमान रहते हैं। कहा भो गया है
अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्मिणि । विशेषणत्वात् साधर्म्य यथा भेदविवक्षया ॥ . नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्मिणि ।। विशेषणत्वाद्वैधयं यथाऽभेदविवक्षया ॥
-आप्तमीमांसा, १११७-१८ ॥ अर्थात् वस्तु का जो अस्तित्व धर्म है, उसका अबिनाभावी नास्तित्व धर्म है । इसी प्रकार वस्तु का जो नास्तित्व धर्म है, उसका अबिनाभावी अस्तित्व धर्म है । इस प्रकार अस्तित्व के बिना नास्तित्व और नास्तित्व के बिना अस्तित्व की कोई सत्ता ही नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि अस्तित्व और नास्तित्व दो ऐसे धर्म हैं, जो प्रत्येक वस्तु में अबिनाभाव से विद्यमान रहते हैं। सप्तभङ्गी के अस्तित्व और नास्तित्व रूप दोनों भङ्गों में इन्हीं धर्मों का मुख्यता और गौणता से विवेचन किया जाता है। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी या निषेधक नहीं हैं । अस्तित्व धर्म दूसरे, तो नास्तित्व धर्म दूसरे हैं। इसीलिए इनमें अविरोध सिद्ध होता है। स्याद्वादमञ्जरी में (पृ० २२६ ) में कहा गया है, "जिस प्रकार स्वरूपादि से अस्तित्व धर्म का सद्भाव अनुभव सिद्ध है, उसी प्रकार पररूपादि के अभाव से नास्तित्व धर्म का सद्भाव भी अनुभव सिद्ध है। वस्तु का सर्वथा अस्तित्व अर्थात् स्वरूप और पररूप से अस्तित्व-उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार स्वरूप से अस्तित्व वस्तु का धर्म होता है, उसी प्रकार पररूप से भी अस्तित्व वस्तु का धर्म नहीं बन जावेगा। वस्तु का सर्वथा नास्तित्व अर्थात् स्वरूप और पररूप से नास्तित्व भी उसका स्वरूप नहीं है; क्योंकि जिस प्रकार पररूप से नास्तित्व वस्तु का धर्म होता है, उसी प्रकार स्वरूप से भी नास्तित्व वस्तु का धर्म नहीं बन जावेगा । इसलिए अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही धर्मों से युक्त रहना वस्तु का स्वभाव या स्वरूप है अर्थात् वस्तु में स्वचतुष्टय का भाव और परचतुष्टय का अभाव होता है। अतः इन धर्मों को एक दूसरे का निषेधक या व्याघातक ( कान्ट्राडिक्टरी ) नहीं कहा जा सकता है।
किन्तु जब इन भावात्मक और अभावात्मक धर्मों के कहने की बात आती है, तब हम स्वचतुष्टय रूप वस्तु के भावात्मक गुण धर्मों को एक शब्द 'स्यादस्ति' से कह देते हैं और जब परचतुष्टय रूप वस्तु के अभावात्मक गुण-धर्मों को कहने की बात आ जाती है, तब उन्हें 'स्यान्नास्ति' शब्द से सम्बोधित करते हैं। किन्तु जब उन्हीं धर्मों को एक साथ ( युगपद् रूप से ) कहना होता है, तब उन्हें अवक्तव्य ही कहना पड़ता है । वस्तुतः अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये ही सप्तभङ्गी के तीन मूल भंग हैं।
अब वस्तु में स्वचतुष्टय रूप भावात्मक धर्मों को A, परचतुष्टय रूप धर्मों को B और उनके अभाव को-B तथा स्वचतुष्टय और परचतुष्टय रूप भावात्मक धर्मों को युगपत् रूप से कहने में भाषा की असमर्थता अर्थात् अवक्तव्यता को -C से प्रदर्शित करें और स्यात् पद को P से दर्शायें, तो तीनों मूल भङ्गों का प्रतीकात्मक रूप इस प्रकार होगा
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