________________
असादृश्ये
असर्य
असादृश्ये - II.1.7
असुप -VII. 11.44 तुल्यता से भिन्न अर्थ में वर्तमान (अव्यय 'यथा' का (आप परे रहते प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व अकार समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है और वह अव्ययी- के स्थान में इकारादेश होता है, यदि वह आप) सुप से भाव समास होता है)।
उत्तर न हो तो। ...असि.. - IV. 1.95
असुपि-VIII. ii. 69 देखें-श्वास्यलङ्कारेषु IV. 1. 95
(अहन् के नकार को रेफ आदेश होता है), सुप् परे न • असि - v. iii. 39
हो तो। (दिशा, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त,
असुरस्य-IV. iv. 123 पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची पूर्व,अधर तथा अवर प्रातिपदिकों से) असि प्रत्यय होता है (और प्रत्यय के
(षष्ठीसमर्थ) असुर प्रातिपदिक से (अपना' अर्थ में यत साथ-साथ इन शब्दों को यथासंख्य करके पर अध तथा प्रत्यय होता है, वेद-विषय म)। अव आदेश होते है)।
असूतजरती - VI. ii. 42 असिच् - V. iv. 122
असूतजरती - इस समास किये हुये शब्द के (पूर्वपद (नयु, दुस् तथा सं शब्दों से उत्तर जो प्रजा तथा मेधा को प्रकृतिस्वर होता है। शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से नित्य ही समासान्त) असिच् ...असूयः -III. 1. 146 प्रत्यय होता है।
देखें-निन्दहिंसक III. II. 146 असिचि - VII. II. 57
असूया.. - VIII.1.8 (कृती, घृती, उच्छृदिर, उतृदिर - इन धातुओं से उत्तर देखें - असूयासम्मति VIII. 1.8 सिचभिन्न (सकारादि आर्धधातक) को विकल्प से इट असूया... -VIII. ii. 103 का आगम होता है)।
देखें - असूयासम्मतिVIII. I. 103 असिद्ध -VI.i. 83
....असूयार्थानाम् - I. iv.37
देखें - कुषगुहेासूयार्थानाम् I. iv. 37 (षत्व और तुक् विधि करने में एकादेश) असिद्ध अर्थात् कार्य के होने पर भी उसका न माना जाना जैसा होता है।
असूयाप्रतिवचने - III. iv. 28
(यथा और तथा शब्द उपपद रहते) निन्दा से प्रत्युत्तर असिद्धम् -VIII. 1.1
गम्यमान हो तो (कृञ् धातु से णमुल प्रत्यय होता है, यदि (यह अधिकार सूत्र है, यहाँ से आगे अध्याय की
कृञ् का अप्रयोग सिद्ध हो)। समाप्तिपर्यन्त 3 पाद के सूत्र पूर्व-पूर्व की दृष्टि में अर्थात् सवा सात अध्याय में कहे गये सूत्रों की दृष्टि में) असिद्ध।
अस्यासम्मतिकोपकुत्सनमात्सनिषु-VIII.1.8 होते है,अर्थात् सिद्ध के समान कार्य नहीं करते।
(वाक्य के आदि के आमन्त्रित को द्वित्व होता है. यदि
वाक्य से) असूया दूसरे के गुणों को भी सहन न करना, असिद्धवत् - VI. iv. 22
असम्मति = असत्कार,कोप= क्रोध,कुत्सन= निन्दा तथा (भस्य' के अधिकारपर्यन्त समानाश्रय अर्थात एक ही
भर्त्सन =डराना गम्यमान हो रहा हो तो। . निमित्त होने पर आभीय कार्य)सिद्ध के समान नहीं होता।
असूयासम्मतिकोपकुत्सनेषु - VIII. II. 103 असुक् - VII. 1. 50
(आमेडित परे रहते पूर्वपद की टि को स्वरित प्लुत होता (वेद-विषय में अवर्णान्त अङ्ग से उत्तर जस् को) असुक् ।
है), असूया = दूसरों के गुणों को भी सहन न करना,असका आगम होता है।
म्मति= असत्कार, कोप-क्रोध तथा कुत्सन=निन्दा असुङ्- VII. 1. 89
गम्यमान होने पर। . (पुंस् अङ्ग के स्थान में सर्वनामस्थान परे रहते) असुङ् असूर्य... - II. II. 36 आदेश होता है।
देखें-असूर्यललाटयो: III. 1. 36