Book Title: Ashtadhyayi Padanukram Kosh
Author(s): Avanindar Kumar
Publisher: Parimal Publication

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Page 561
________________ 543 संवत्सराग्रहायणीभ्याम् ...सहो: -III. 1. 41 संयोगादेः-VII. 1.43 देखें-दारिसहोः III. 1.41 संयोग है आदि में जिसके, ऐसे (ऋकारान्त धातु) से संयस-III.1.72 उत्तर (भी आत्मनेपदपरक लिङ् सिच् को विकल्प से इट सम् उपसर्गपूर्वक यस् धातु से (भी श्यन् प्रत्यय विकल्प आगम होता है)। से होता है, कर्तवाची सार्वधातुक परे रहते)। संयोगादेः- VII. iv. 10 ...संयुक्त...-VI. II. 133 संयोग आदि में है जिनके.ऐसे (ऋकारान्त) अङ्ग को देखें- आचार्यराज VI. ii. 133 (भी गुण होता है,लिट् परे रहते)। संयुक्ते-IN. iv. 90 संयोगादेः-VIII. 1.43 (तृतीयासमर्थ गृहपति शब्द से) संयुक्त = जुड़ा अर्थ संयोग आदि वाले (आकारान्त एवं यण्वान्) धातु से में (ज्य प्रत्यय होता है,सञ्जाविषय में)। .. उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है)। ...संयोगायो:- VII. iv. 29 संयोग...- V.i.37 देखें- अर्तिसंयोगायो: VII. iv. 29 देखें-संयोगोत्पातौ v.i. 37 संयोगायो:- VIII. ii. 29 संयोग:-I.1.7 (पद के अन्त में तथा झल् परे रहते) संयोग के आदि (व्यवधानरहित = जिनके बीच में अच् न हों, ऐसे दो में (सकार तथा ककार का लोप होता है)। या दो से अधिक हलों की) संयोग संज्ञा होती है। संयोगान्तस्य- VII. ii. 23 संयोगस्य-VI. iv. 10 संयोग अन्तवाले पद का (अन्त्यलोप होता है)। (सकारान्त) संयोग का (और महत् शब्द का जो नकार, संयोगे-I.iv. 11 उसकी उपधा को दीर्घ होता है, सम्बुद्धिभिन्न सर्वनाम संयोग के परे रहते (हस्व अक्षर की गुरु संज्ञा होती 'स्थान विभक्ति के परे रहने पर)। संयोगात्- VI. iv. 137 . संयोगोत्पातौ-v.1.37 (वकार तथा मकार अन्त में है जिसके, ऐसे) संयोग से (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से 'कारण' अर्थ में यथाविहित उत्तरं (तदन्त भसज्ञक अङ्ग के अकार का लोप नहीं हो प्रत्यय होते हैं) यदि वह कारण संयोग= सम्बन्ध वा ता)। . . उत्पात = झगड़ा हो तो। संयोगादयः- VI. 1.3 संवत्सर...- Iv.iii. 50 (अजादि के द्वितीया एकाच समुदाय के) संयोग आदि देखें-संवत्सराग्रहायणीभ्याम् IV. iii. 50 में स्थित (न.द् तथा र् को द्वित्व नहीं होता)। संवत्सर...-VII. Ili. 15 संयोगादि- VI. iv. 166 देखें-संवत्सरसंख्यस्य VII. iii. 15 संवत्सरसङ्ख्यस्य-VII. iii. 15 , संयोग आदि में है जिस (इन्) के, उसको (भी अण् (सङ्ख्यावाची शब्द से उत्तर) संवत्सर शब्द के तथा परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है)। सङ्ख्यावाची शब्द के (अचों में आदि अच को भी बित. संगा-VI. 1.68 णित् तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। (मा, स्था, गा,पा, हा तथा सा से अन्य) जो संयोग संवत्सराप्रहायणीभ्याम-IV. 1.50 आदि वाला आकारान्त अङ्ग, उसको (कित्, ङित् लिङ्: (सप्तमीसमर्थ कालवाची) संवत्सर तथा आग्रहायणी आर्धधातुक परे रहते विकल्प से आकारादेश होता है)। प्रातिपदिकों से (ढ तथा वुञ् प्रत्यय होते है)। शब्द का जो नका स्थान निको दीर्घ होता है

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