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(नालछा) को अपना निवास बनाया। उन्होंने लिखा है कि -'अब इस समय पुनः मालवा में जैन श्रावक स्वच्छन्दता पूर्वक बिहार करने लगे हैं।' पण्डित आशाधर एक प्रकाण्ड विद्वान, विविध विषय विशेषज्ञ एवं कुशल ग्रन्थकार थे। गद्य और पद्य में लिखे हुए उनके बीस से अधिक ग्रन्थ ज्ञात हैं। इनके विषय हैं - कोश, काव्य शास्त्र, वैद्यक शास्त्र, पूजा प्रतिष्ठा, धर्म शास्त्र, दर्शन, सिद्धान्त तथा काव्य आदि। नलकच्छपुर (नालछा) के नेमिनाथ जिनालय में उन्होंने अपना एक साहित्य मन्दिर एवं विद्यापीठ स्थापित किया था। उनके शिष्य बाल सरस्वती मदन तथा अर्हदास ने भी कई ग्रन्थ लिखे। ''पारिजात मंजरी", "शासन चतुस्त्रिशतिका", "पुरुदेवचम्पू' और 'भव्य जनकण्ठा भरण' आदि इनमें प्रमुख हैं। एक अन्य समकालीन जैन कवि और सम्भवत: आशाधर के गुरु भाई दामोदर कवि कृत "नेमिनाथ चरित्र' भी ऐसी रचनाओं के साथ - साथ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आशाधर लगभग 35 वर्षों तक मालवा में रहे और मृत्युपर्यन्त देवपाल देव तथा जैतुंगी देव के समय तक शासकीय सम्मान पाते रहे। नलकच्छपुर (नालछा) में रहते हुए उन्होंने जाति, कर्तव्य, स्याद्वाद तथा अर्हत् सिद्धान्तों की भी सुन्दर व्याख्या की। परमार काल में मालवा में जैन धर्म प्रगति पर था। लेकिन इस प्रगति के साथ - साथ जैन धर्म में अनके बुराईयाँ भी आ चुकी थीं। आशाधर जैसे विद्वानों ने उन्हें दूर करने के लिये अत्यधिक प्रयत्न किये। जैन धर्म में पनपा देवतावाद भी इनका मुख्य कारण था। मध्यकाल में जैन धर्म भी तांत्रिक प्रभाव से अछूता नहीं था और तीर्थकरों के साथ - साथ अन्य देवताओं की पूजा प्रतिष्ठा में वृद्धि हो रही थी। हेलाचार्य, इन्द्रनंदि और मल्लिसेण जैसे दिग्गजों ने तांत्रिक साधना की जो प्रेरणा 9 वीं - 10 वीं शती के लगभग समाज को दी वह आशाधर के समय खूब फैल चुकी थी। जैन परम्परा के पंच परमेष्ठियों की पूजन परम्परा का विधान बड़ा प्राचीन है। असद्भाव स्थापना पूजा, जिसे जैन प्रचारकों ने प्रारम्भ में अनुचित बताया है, मध्यकाल में वह प्रचलित हो रही थी। आशाधर जैसे विचारक असद्भाव स्थापना पूजा के विरूद्ध थे। अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'प्रतिष्ठासारोद्धार' में उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि असद्भाव स्थापना से लोग मोहित होकर अन्यथा कल्पना की ओर उन्मुख हो जाते हैं। वे त्रिषष्ट शलाका पुरुषों की आराधना को महत्व देते थे और सम्भवत: इसीलिये अनेक प्रतिष्ठा और चरित्र ग्रन्थों के होते हुए भी उन्होंने 'त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र' की रचना की थी।
आशाधर के समय जैन धर्म बहु देवतावाद से प्रभावित हो चुका था। चौंसठ योगिनियों और 96 क्षेत्रपालों की पूजा को महत्व प्राप्त हो रहा था और उनसे सम्बन्धित स्तुति परक साहित्य का सृजन भी हो रहा था। भैरव पद्मावती कल्प, विद्यानुवाद, कामचाण्डलिनी कल्प, यक्षिणी कल्प, ज्वालिनी कल्प, दुवालिनी कल्प, मंत्राधिराज कल्प आदि ग्रन्थों में यक्ष - यक्षियों के विविध स्वरूपों की कल्पनाएँ तो थी ही, साथ - साथ देवी कल्प, अम्बिका कल्प और अद्भुत पदमावती कल्प जैसे तांत्रिक प्रभाव से युक्त ग्रन्थों का प्रचार-प्रसार भी जैन मतावलम्बियों को प्रभावित करने लगा था। आशाधर की दृष्टि से इस प्रकार का प्रभाव आम्नाय को विच्छेद की ओर उन्मुख करने वाला था। मालवा के इस जैन पण्डित ने आम्नाय की एकता को दृष्टिगत रखते हुए विक्रम सम्वत् 1285 (1228 ई.) में जब परमार नरेश देवपाल देव मालवा का शासक था तब, 'प्रतिष्ठासारोद्धार' नामक अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ जैन प्रतिमा विज्ञान की महत्वपूर्ण कड़ी है। जैन विद्वानों के जिसे कलियुग का कालिदास कहा है, वह सन् 1195 से सन् 1245 तक यहीं के नेमि चैत्यालय में रह रहा था।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि नालछा के आसपास का भाग, जहाँ कई नये गाँव बस गये हैं, परमार काल में नालछा नगर के अन्तर्गत थे। पण्डित आशाधर अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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