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समस्त तीर्थस्थानों और संग्रहालयों में अखंडित या खंडित मूर्तियों का आकलन करते हुए श्री शेलेन्द्रकुमार रस्तोगी ने लिखा है कि लटों से पहचाने जाने वाले आदिनाथ व सर्पफणावली से पहचाने जाने वाले पार्श्वनाथ की मूर्तियां देशभर में सबसे अधिक हैं। ईक्ष्चाकु कुल के आदि पुरुष आदिनाथ व उन्हीं की एक शाखा नाग / उरंग वंश के ऐतिहासिक महत्व को स्थापित करने में इस सूत्र को भुलाया नहीं जा सकता।
संधव सभ्यता में स्वस्तिक के प्रमाण व मथुरा में देवनिर्मित सुपार्श्वनाथ के स्तूप का प्रमाण मध्यप्रदेश में नाग जाति के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक कार्यकलापों के साक्ष्य है। नागवंशी पार्श्वनाथ के काल में नागवंशी सुपार्श्वनाथ के स्तूप का पुनरूद्धार होना स्वाभाविक है।
नागवंश / उगवंश के अधिक से अधिक प्रमाण एकत्रित किये जा सके तो जैन इतिहास सुपार्श्वनाथ तक अवश्य पहुंच जायेगा। सदैव से जैन इतिहासकार इस प्रश्न का उत्तर ठीक से नहीं दे पाते हैं कि सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ दोनों के मस्तिष्क पर सर्पपण मंडल क्यों बनाये जाते हैं। संभवतः इसका कारण यह है कि दोनों ही नागवंशी थे और सर्पफण उनका प्रतीक चिन्ह था।
भारत की सांस्कृतिक यात्रा इतनी जटिल है कि श्रमण- वैदिक संदर्भ जहाँ अपनी दार्शनिक पीठिका में अलग हैं यहां उनकी कला अभिव्यक्ति (साहित्य शिल्प चित्र संगीत) में आपस में गले लगी हुई है। बाद में बौद्ध परंपराओं की मिलावट भी इसमें हो गई यद्यपि यह मिश्रण ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद ही हो सका।
जैन और वैदिक परंपराओं के मिश्रण का मूल कारण निरंतर साथ रहना आपसी विवाह संबंध और उपनिषदों के प्रवर्तन के साथ श्रमण सोच की ओर झुकाव था। वंश परंपराये कुछ भी रही हों किन्तु युद्धों व सामयिक व्यवस्था समीकरणों के कारण एक ही वंश में जैन व वैदिक दोनों ही धर्मावलम्बी शासक हुए।
नागवंश की यह परंपरा शिशुनाग (642 ई. पूर्व) के मगध के अधिपती होने के बाद स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं होती है। केवल 467 ई. पू. में शैशुनाग व्रात्यनन्दि द्वारा विजयवंश (पूर्वनंदवंश) की स्थापना का संदर्भ मिलता है। पर नागवंश का अस्तित्व बना रहा।
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इसके पश्चात् नागों कीं चर्चा डॉ. जायसवाल ने की है। उनका कहना है कि भारशिव नंदी और नवनाग एक ही वंश के होते हुए भी पदमावती कान्तिपुर और मथुरा के नवनागों को नवनाग कहकर पुराणों में उल्लेख किया है। ऐसा लगता है कुषाणवंश का राज्य स्थापित हो जाने से नाग सम्राटों की श्रृंखला बीच में ही टूट गई थी जिस समयभार शिव वंश के वाकाटक रूद्रसेन और मथुरा में यदुवंशी नाग राज्य कर रहे थे उसी समय टाकवंश के नाग राजा गणपति पद्मावती में राज्य कर रहे थे।
जायसवाल ने गणपतिनाग का समय 310 से 344 ई. माना है। एक संदर्भ ध्यान देने योग्य है कि पद्मावती के महाराज भवनाग के ब्राह्मण सेनापति विन्ध्यशक्ति ने विन्ध्य और पश्चिम में नर्मदा के छोर तक नागों की शक्ति को बढ़ाया। उत्तर में अहिच्छत्र ( पांचाल), मथुरा और कोशांबी तक हम नागों का राज्य पाते है। नागों ने इन क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर अपना राज्य स्थापित किया था इसकी चर्चा हम पहले कर आये हैं।
गणपति नाग पद्मावती (पवैया) के अंतिम अधीश्वर थे जहाँ पहले से ही नागवंश का आधिपत्य चला आ रहा था। इसकी बहुत अधिक संभावना है कि जनमजेय व उसके वंशजों की गतिविधियों के कारण पद्मावती क्षेत्र में फैले बहुत से नागवंशी वैदिक परंपराओं से जुड़ गये हो भ्रमण परंपरा में यक्षों का समावेश तथा पदमावती से प्राप्त यक्ष मूर्तियों ऐसे परिवर्तन का सशक्त आधार बन
हैं।
अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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