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पुस्तक समीक्षा
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
जैन विज्ञान और दर्शन की जुगलबंदी
समीक्षक
नाम
: जीवन क्या है? जीवन क्या है? लेखक
: डॉ. अनिलकुमार जैन, अहमदाबाद What Is Life? प्रकाशक
: कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584, म. गांधी मार्ग, तुकोगंज,
इन्दौर एवं तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ,
जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर (मेरठ). प्रकाशन वर्ष/संस्करण : 2003, प्रथम पृष्ठ संख्या
: 100 (आमुख पृष्ठों के अतिरिक्त) मूल्य
: रु. 50.00 : प्रो. महेश दुबे, प्राध्यापक - गणित, होलकर स्वशासी
विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर-452017 ___ डॉ. अनिल कुमार जैन की पुस्तक का शीर्षक 'जीवन क्या है?' पढ़ते हुए सुप्रसिद्ध भौतिकविद् शूडिंजर की 1944 में प्रकाशित पुस्तक 'व्हाट इज लाइफ?' का ध्यान आता है। श्रूडिंजर की पुस्तक का फलक अत्यंत व्यापक था और वह समकालीन जैव रसायन साहित्य में, न पाई जाने वाली गहरी अंतर्दृष्टि से लिखी गई थी। डॉ. अनिलकुमार जैन भी भौतिक शास्त्र के विद्यार्थी हैं और अपनी इस समान शीर्षका पुस्तक में जैव रासायनिक विषयों की चर्चा करते हैं। उनकी पुस्तक का विस्तार सीमित है। लेखक का उद्देश्य आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं के संदर्भ में जैन दर्शन की व्यापकता और सक्षमता को प्रस्तुत करना है। उन्होंने अपनी पुस्तक में जैन दर्शन और विज्ञान के संदर्भ में कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर तलाशने का प्रयास किया है।
हाल के वर्षों में जैव विज्ञान में हुई खोजों ने जेनेटिक इंजीनियरिंग और क्लोनिंग जैसी नई - नई अवधारणाओं और तकनीकों को जन्म दिया है। पर जीवन और मृत्यु से संबंधित अनेक मूलभूत प्रश्नों के उत्तर अभी भी विज्ञान के पास नहीं हैं। ऐसे अनेक प्रश्न, जिनका उत्तर 'नीरज' के शब्दों में कुछ भी नहीं बदलता, केवल जिल्द बदलती पोथी' होता है, अभी भी विज्ञान की भाषा में अनुत्तरित है। इनकी व्याख्या के लिए धर्म, दर्शन और अध्यात्म का सहारा लेना पड़ता है - और तब लगता है कि धर्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं।
लगभग सौ पृष्ठों में फैली इस पुस्तक के 11 अध्यायों में जीवन क्या है? आत्मा का अस्तित्व, जैन दर्शन में सूक्ष्मजीवों की स्थिति, कोशिका, वायरस और निगोदिया जीव तथा कर्म - सिद्धांत के सापेक्ष नई जैव - रसायनिक तकनीकों जैसे विषयों पर जैन धर्म में निहित वैज्ञानिक पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। लेखक के अनुसार जानने देखने और अनुभव करने की सामर्थ्य ही जीवन को परिभाषित करती है। सजीवों में आनुवांशिक परिवर्तन स्वयंभू और आकस्मिक होते हैं। कोशिका और वायरस को निगोदिया जीव श्रेणी में रखा जा सकता है। पुस्तक में खाद्य पदार्थों का रक्षण, दूध का पास्चीकरण, कोशिका विभाजन, प्रजनन जैसी कई जैव - रसायनिक अवधारणाओं को लेकर जैन दर्शन की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। क्लोनिंग एक विवादास्पद विषय है। इसके साथ नैतिकता का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। जैनाचार्यों के अनुसार संक्रमण का सिद्धांत जीव को बदलने का सिद्धांत है। लेखक ने कर्म सिद्धांत की सीमाओं में क्लोनिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग पर महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी हैं।
पिछले कुछ वर्षों में आधुनिक विज्ञान को धर्म, दर्शन और अध्यात्म से जोड़ने की प्रवृत्ति बढी है। प्राय: इस प्रवृत्ति में श्रद्धा के अतिरेक तक, इस प्रकार के दावों की बहुलता पाई जाती है कि सारा आधुनिक विज्ञान हमारे पुरातन धार्मिक ग्रंथों में समाया हुआ है और सभी नई वैज्ञानिक अवधारणाओं का पूर्वानुमान हमारे दार्शनिक विचारों में कर लिया गया था। प्रस्तुत पुस्तक इसका अपवाद नहीं है, इसके बावजूद पुस्तक की विषय वस्तु प्रभावी है।
पुस्तक की भाषा में, वैज्ञानिक शब्दावली और जैन दार्शनिकता का संयोजन है। कुछ अध्यायों के अंत में उपयोगी संदर्भ दिए गए हैं। पुस्तक पठनीय और विचारोत्तेजक है। अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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