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गतिविधियाँ
दिव्यावदान महोत्सव
आत्मविशुद्धि को प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा बनने के लिये जैन संस्कृति में सर्वज्ञ वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और अनेकान्तमयी जिनवाणी की आराधना आवश्यक मानी गई है। सर्वज्ञ देव वन्दनीय हैं। निर्ग्रन्थ गुरु का दर्शन परमकल्याणकारी और प्रेरणास्पद होता है।
जैन संस्कृति के विकास और उन्नति के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह ज्ञात होता है कि कैवल्य सूर्य की रश्मियों से विश्व का मोहान्धकार दूर करने वाले तीर्थंकरों ने अपने जन्म द्वारा उत्तर भारत की भूमि को
पवित्र किया और निर्वाण द्वारा भी उसे तीर्थस्थल बनाया, किन्तु उनके धर्मदेशनारूप अमृत को पीकर, महत्वपूर्ण वीतरागता भरे शास्त्रों का निर्माण करने वाले धुरन्धर आचार्यों ने अपने जन्म से दक्षिण भारत की भूमि को श्रुतवन्दनीय तीर्थ बनाया।
आत्म - विशुद्धि करने वाले महापुरुषों की अक्षुण्ण परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, जिन्होंने जिनधर्म का उद्योतन किया है, अज्ञानरूपी अंधकार को दूर भगाकर जिनधर्म की प्रभावना की एवं अनेक भव्यात्माओं को रत्नत्रय निधि प्रदान कर पवित्र बनाया है।
इसी श्रृंखला में विक्रम सं. 1929, आषाढ़ कृष्णा छठ, गुरुवार (दि. 25 जुलाई 1872 ई.) को भोज ग्रामवासी भीगगौड़ा पाटिल श्रेष्ठी की सत्यवती नाम की भार्या की कुक्षि से यलगुड में एक अत्यन्त होनहार तेजस्वी बालक ने जन्म लिया, जिसका नाम सातगौड़ा रखा गया। सातगौड़ा सत्य और शाश्वत मार्ग पर शनैः शनै: आगे बढ़ते गये और क्रम से सपतम प्रतिमा, क्षुल्लक, ऐलक, मुनि और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए जिन्हें आज हम चारित्रचक्रवर्ती, परम्पूज्य आचार्य श्री शान्तिसागरजी मुनिराज के नाम से जानते हैं।
दिगम्बराचार्य श्री शान्तिसागरजी मुनिराज चन्द्रमा के समान शीतलता देने वाले तथा सूर्य की भांति तपस्या के तेज से अलंकृत थे। वे ऐसी आध्यात्मिक लोकोत्तर ज्योति थे, जिसमें भानु और शशि की विशेषता केन्द्रित थीं। उनका जीवन परोपकारपूर्ण समुज्ज्वल प्रवृत्तियों से समलंकृत था। उन्होंने आत्मशुद्धि और रत्नत्रय साधना को अपने जीवन का केन्द्र बनाकर आत्माराधना के कल्याणपथ को अपनाया। वास्तव में वे परम योगी थे जिन्होंने शरीरपोषण से पूर्ण विमुखता धारण कर आत्मोन्मुखता प्राप्त की। आचार्यश्री श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधक थे, जिनका पूर्ण जीवन आत्मा में विद्यमान अनन्त शक्ति सम्पन्न चैतन्य तत्त्व की अभिव्यक्ति द्वारा परमपद की प्राप्ति में संलग्न रहा। आचार्यश्री ने देश के कोने कोने में मंगलविहार कर प्राणियों को कल्याणकारी मार्ग बताया और जैनधर्म की प्राणप्रण से रक्षा की।
आचार्य श्री वीरसागरजी के शब्दों में - 'तीर्थयात्रा करनी है तो शिखरजी जाओ, अद्भुत मूर्ति के दर्शन करने हों तो श्रवणबेलगोला में भगवान गोम्मटेश्वर की दिव्य प्रतिमा के समीप पहुँचो और यदि साधुराज के दर्शन करने हों तो आचार्य श्री शान्तिसागरजी की मंगल छवि निहारो।
आचार्यश्री शान्तिसागरजी की प्रेरणा से जिज्ञासुजनों ने धर्म के सही स्वरूप को समझा और उस वीतरागमयी मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण किया। वर्तमान में अनेक पूज्य त्यागीवृन्द अपने को चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी की परम्परा का मान कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं।
ऐसे परम साधक, अध्यात्म योगी, मुनिश्रेष्ठ, आचार्य श्री शान्तिसागरजी का 131 वाँ जन्मजयंती महोत्सव वर्ष 'संयम वर्ष' के रूप में मनाया जा रहा है। इस आयोजन का पवित्र उद्देश्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी के कालजयी योगदान एवं दिव्य अवदान को स्मरण करते हुए परम पावन जीवन चरित्र को नमन करना और पई पीढ़ी को उससे अवगत कराना है।
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अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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