Book Title: Arhat Vachan 2003 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 53
________________ अक्ष शब्द का एक और अर्थ विस्तार (तीसरी आँख)। सूर्यवंशी इक्ष्वाकु वर्तमान लेखक ने अपने हड़प्पा की लिपि से संबंधित शोध कार्य के दौरान इस लिपि के एक चिन्ह को "अक्ष' की संज्ञा दी है।" और पाया है कि शब्द हड़प्पा की संस्कृति में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह एक बहुआयामी शब्द है। यद्यपि प्रारंभ में मात्र ऐसा समझा गया था कि इस शब्द का उपयोग एक यंत्र के नाम के रूप में किया जाता था। जो एक स्तम्भनुमा यंत्र है और हड़प्पा की 'एक श्रृंगी जीव' (युनीकान) वाली सैकड़ों मोहरों पर उस जीव के चित्र के समक्ष उत्कीर्णित पाया जाता है। एक स्तंभ या छत्र के अतिरिक्त इस "अक्ष" शब्द का अर्थ वैदिक भाषा में अश्व भी संभावित दिखता है। अत: उस स्थिति में स्वयं 'एक श्रृंगी जीव' भी 'अक्ष' हो सकता है। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण संभावना है क्योंकि ऐसी कल्पना की जा सकती है कि इसी शब्द "अक्ष" से बाद में इक्ष्वाकु विरुद्ध की संकल्पना की गई होगी। इक्ष्वाकु विरूद्ध भारतीय परंपरा में सूर्यवंशियों के उद्भव से सरोकार रखता है। महाभारत की कथानुसार अश्विनी कुमारों के अंश से उत्पन्न कुंती के दो पुत्रों :- 1. नकुल एवं (2) सहदेव के नामों में सूर्य तथा चन्द्र के नाम पर प्रतिष्ठित राजवंशों के मूलभाव को परखा जा सकता है - नकुल - नर्कुल (सरकण्ड) - नर / सर वंश अर्थात इक्ष्वाकु या सूर्यवंश सहदेव - समदेव अर्थात् सोमदेव या चन्द्रवंश यहाँ यह उल्लेखनीय हो जाता है कि इक्ष्वाकु वंश की स्थापना प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव से आरंभ हुई मानी जाती है।20। प्राचीन अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति शिक्षकों की पहचान की आवश्यकता कितनी अदभत बात है कि सभी पाश्चात्य विद्वान मिश्र में ई.प. 18 वीं शताब्दी में हिक्सास नामक शासकों के रूप में और उनसे भी बहुत पहले मिश्र के प्रारम्भिक काल में विदेशी सभ्य आगंतुकों की बात करते हैं। इसी प्रकार वे मैसोपोटामिया (वर्तमान इराक) में सुमेरी लोगों को, लगभग 3000 ई.पू. में, बाहर से आने वाले संस्कृति शिक्षकों के रूप में पहचानते हैं और इसी क्रम में पश्चिमी एशिया (आधुनिक लेबनान) में फिनीशियनों (= पाणियों?) के बाहर से आगमन को स्वीकारते हैं मगर उनके मूलस्रोत के प्रश्न को लगभग अनछुआ छोड़ देते हैं। रामचंद्र जैन ने इन सभी देशों की संस्कृतियों का अध्ययन करके उनमें जिन धर्म से मेल खाते हए मूल सांस्कृतिक गणों की उपस्थिति की ओर इंगित किया है। इस ओर विद्वद् समाज का ध्यान जाने की आवश्यकता है। जिन परंपरा के अंतिम मार्गदर्शक, महावीर महावीर निर्विवाद रूप से जैन सम्प्रदाय के अंतिम तीर्थकर माने जाते हैं। कुछ लोगों द्वारा उन्हें जैन धर्म के पाँच मूल व्रतों (1) अहिंसा (2) अमृषा (3) अचौर्य (4) अपरिग्रह (5) ब्रह्मचर्य में से पांचवें (ब्रह्मचर्य) पर जोर देने वाले जिन कहा जाता है। उन्हें दिगंबरत्व की अनिवार्य शिक्षा, अपने अनुयायी साधुओं के लिये, देने वाला पहला तीर्थकर भी बताया जाता है। मगर मेसोपोटामिया और हड़प्पा की संस्कृतियों के उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि संभवत: वे दिगंबरत्व की प्राचीन परम्परा के मात्र पोषक थे, आविष्कारक नहीं, प्रणेता नहीं। पाँचों सिद्धान्त एवं दिगम्बरत्व अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रवाहित हैं। उन्होंने तो मात्र उन्हें प्रचारित एवं व्याख्यायित किया है। Un अर्हत् वचन, 15 (4), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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