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अध्येताओं में देखने को मिलती है। इनमें अनेक प्रसिद्ध भारतविदों के नाम गिनाए जा सकते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख नाम हैं आर.पी. चंदा, एच.एम. जानसन', आर.सी. मजूमदार, फादर एच. हेरास' , फादर ई. पोकॉक' , सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन , डॉ. अल्ब्रेट बेवर' इत्यादि।
सामान्यत: इन विद्वानों द्वारा स्वीकारा जाता है कि जिन परंपरा महावीर के काल से पहले भी विद्यमान थी। उसका विस्तार हडप्पा संस्कति से प्राप्त अवशेषों में आसानी से ढूंढा जा सकता है। इस प्रकार उनमे मत में जिन परंपरा संसार की प्राचीनतम धर्म परंपराओं की श्रेणी में स्थापित होती है जो पिछले हजारों वर्षों से अजस्र प्रवाहित हैं।
वर्तमान लेखक ने अपने शोध पत्र - "हडप्पा की मोहरों पर जैन पुराण और आचरण के संदर्भ''' में स्थापित करने का प्रयास किया था कि हड़प्पा की संस्कृति की कला में यथेष्ट देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त दो विश्वप्रसिद्ध भारतविदों का संदर्भ देते हुए संभावना व्यक्त की थी कि जिन परंपरा भारत की भौगोलिक सीमाओं के पार, पश्चिमी जगत के दो प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्रों में उपस्थित दिखती है। सुमेर कालीन मैसोपोटामिया,
और पुरातिहासिक यूनान जैसे केन्द्रों में न सिर्फ यह संस्कृति विद्यमान रही होगी बल्कि उन विद्वानों के मतानुसार वहाँ के विकास में उनका मूलगामी सहभाग भी रहा होगा। जिन परंपरा की विदेशी संस्कृति में उपस्थिति
तीर्थंकरों द्वारा स्थापित श्रमणिक जीवनधारा के लिए जैन शब्द भारतीय भाषाओं में प्रचलित है। यद्यपि इस शब्द के प्रचलन की ऐतिहासिकता पर व्यक्तिगत स्तर पर काम करना अभी शेष है। जिन शब्द इसी जैन शब्द का मूल स्वरूप है और लम्बे समय से जैन धर्म के साधुओं के लिए प्रयुक्त होता रहा है। इसे क्या मात्र संयोग ही माना जाए कि यह शब्द जिन अथवा जिन्न अरबी भाषा में भी पाया जाता है और एक ऐसे व्यक्तित्व के लिए प्रयुक्त होता है जो एक तैजस योनि, भूत, प्रेत, आसुरी बल पौरूषवाला हो। अत: यदि इसे मात्र संयोग नहीं मानें तो इस शब्द का इतिहास अरबी भाषा में इस्लाम धर्म के प्रादुर्भाव से पूर्व के काल से गुजरते
हुए सुमेरी काल के मैसोपोटामियाई इतिहास से जुड़ता दिखता
' है। उस काल में वहाँ दिगम्बरत्व को आदर्श पवित्रता के भाव राजर्षि की मूर्ति
से जोड़ा जाता था और मंदिरों में ऊँचे पदस्थ पुजारी सभी अनुष्ठानों को संपन्न कराते समय नग्न अवस्था में आ जाते थे। इसी प्रकार वे ऋषभ देव की कुल परंपरा के समान व्यक्तित्व वाली मूर्तियाँ बनाते थे और संभवत: उनकी पूजा भी करते थे। हड़प्पा संस्कृति एवं सुमेर मूलक मैसोपोटामियाई संस्कृति के घनिष्ठ संबंधों का एक अकाट्य प्रमाण वहाँ पाए जाने वाले दो मूर्ति शिल्प हैं। उनमें से एक है मोहन - जोदड़ों से प्राप्त तथा कथित राजर्षि की मूर्ति। बाँए कंधे के ऊपर से शॉल लपेटे इस मूर्ति के माथे पर एक पट्टा बंधा है जिसके अगले हिस्से में "वृत के बीच में बिन्दु'' उकेरा गया है। और यही चिन्ह उस दूसरी मूर्ति के माथे पर भी उकेरा हुआ पाया जाता है जो सुमेर काल के मैसौपोटामिया के किसी नगर से पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त हुई थी। कहीं यह चिन्ह भी "अक्ष" का ही एक प्रतीक तो नहीं है? अर्थात्
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अर्हत् वचन, 15 (4). 2003
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