Book Title: Arhat Vachan 2003 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore
View full book text
________________
अत्रोपपादचरमोत्तम देहिवर्गाः पुण्याधिकास्त्वनप वर्त्य महायुषस्ते। अन्येऽपवर्त्यपरमायुष एव लोके तेषां महदभयमभूदिह दोष कोपात॥
(कल्याणकारक, श्लोक 3 -4) 2. देव! त्वमेव शरणं शरणागतानामस्माकमाकुलधियामिह कर्म भूमौ।।
शीतातिताप हिम वृष्टि निपीडितानां कालक्रमात् कदशनाशनतत्पराणाम्॥ नानाविधामयमेयादति दुःखिताना माहार भेषज निरूक्ति मजानतां न:तत्स्वास्थ्यरक्षणविधानमिहातुराणां का वा क्रिया कथयतामथ लोकनाथ।।
(कल्याणकारक, श्लोक 5-6) 3. विज्ञाप्य देवमिति विश्वजगद् हितार्थ तूष्णीं स्थिता गणधर प्रमुखा: प्रधानाः ।
तस्मिन् महासदसि दिव्यनिनादयुक्ता वाणी संसार सरसा वरदेव देवी। तत्रादित: पुरूषलक्षणमामयानामप्यौष धान्यखिलकाल विशेषणं च। संक्षेपत: सकलवस्तुचतुष्टयं सा सर्वज्ञसूचकमिन्दं कथयांचकार ।।
(कल्याणकारक, श्लोक 7-8) 4. दिव्यध्वनिप्रकटितं परमार्थजातं साक्षात्तया, गणधरोऽधिजगे समस्तम्। पश्चात गणाधिपनिरूपित वाक्प्रपंचमष्टार्ध निर्मलाधियो मुनयोऽधिजग्मुः।।
(कल्याणकारक, श्लोक 9) 5. एवं जिनान्तर निबन्धन सिद्धमार्गादायात मनाकुलममर्थगाढम्। स्वायम्भुषं सकलमेव सनातनं तत् साक्षाच्छतं श्रुतदलैः श्रुतकेवलिभ्यः ।।
(कल्याणकारक, श्लोक 10) 6. अष्टांगमप्यखिलमत्र समन्तभद्रैः प्रोक्तं सविस्तरवचो विभवैविशेषात्। संक्षेपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेष पदार्थ युक्तम्॥
(कल्याणकारक, परिच्छेद 25, 86) 7. कल्याणकारक, परिच्छेद, 25, श्लोक 841 8. सिद्धान्तस्य च वेदिनो जिनमते जैनेन्द्र पाणिन्य च।
कल्प व्याकरणाय ते भगवते देव्यालियाराधिंया ॥ श्री जैनेन्द्र वचस्सुधारसवरैः वैद्यामृतो धार्यते। श्री पादास्य सदानमोस्तु गुरूवे श्री पूज्यपादौ मुनेः ।।
(कल्याणकारक, संपादकीय, पृ. 35) 9. सकलोवीनुत पूज्यपादमुनिपं तां पेलद कल्याणकारकदिं देहद दोषमं। विततवाचादोषमं शद्रुसाधक जैनेन्द्रदिनी जगज्जनदमिथ्यादोषमं।
तत्वबोधकतत्वार्थद वृत्तियिंदे कलेदं कारूण्य दुग्धार्णवं ।। 10. शालाक्यं पूज्यपाद प्रकटितमाधिकं शल्यतंत्र च पात्र।
स्वामिप्रोक्तं विषोग्रगहशमनविधि: सिद्धसैनै: प्रसिद्धैः ।। काये या सा चिकित्सा दशरथ गुरूभिर्मेघनादै: शिशूनां वैद्यं वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथितं सिंहनादै मुनीन्द्रैः ।।
(कल्याणकारक, परिच्छेद 25, श्लोक 84)
प्राप्त : 08.08.2002
AO
अर्हत वचन 15 (4) 2003
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136