________________
परिस्थितयां और कतिपय मान्यतायें कारण भूत थीं इतर भारतीय समाज में भी नाथो, शाक्तों आदि का प्रभाव लौकिक विद्याओं चिकित्सा, रसायन जादू टोना, झड़ा फूंकी, ज्योतिष, तंत्र मंत्र के कारण विशेष रूप से बढ़ता जा रहा था। ऐसी स्थिति में समाज के सम्मुख अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को बनाये रखने के लिए लौकिक विद्याओं का आश्रय लेना आवश्यक था, ताकि उनका अनुसरण और प्रयोग कर श्रावक वर्ग तथा इतर लोगों में उनका सम्मान जनक स्थान बना रहे। यद्यपि दिगम्बर परम्परानुमायी भट्टारकों ने लौकिक विद्याओं विज्ञान का विशेष आश्रय नहीं लिया, किन्तु श्वेताम्बर परम्परानुयायी यतियों ने लौकिक विद्याओं का आश्रय विशेष रूप से लेकर उनका भरपूर उपयोग किया।
यतियों ने अपने निवास हेतु जो उपासरे बनाये थे वहां श्रावकों के बच्चों को धार्मिक शिक्षा एवं धर्मोपदेश के अतिरिक्त लौकिक विद्याओं की भी शिक्षा दी जाती थी। साथ ही
तंत्र मंत्र, ज्योतिष, चिकित्सा आदि के द्वारा पीड़ित लोगों का उपचार भी किया जाता था
-
जिससे उन उपाश्रयों और वहां रहने वाले यतियों पर लोगों की श्रद्धा एवं विश्वास सुदृढ़ हो जाता था । उन यातियों ने योग, बल और तंत्र मंत्र की साधना कर अनेक सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं तथा चिकित्सा और रसायन के अद्भुत चमत्कारों से जन सामान्य को चमत्कृत कर उन्होंने लोगों को आकर्षित करने और समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाने में भी उन्होंने सफलता प्राप्त की थी।
-
भट्टारकों का प्रभाव दक्षिण भारत में विशेष रूप से था। उन्होंने आयुर्वेद की विशिष्ट चिकित्सा रसायन में विशेष दक्षता प्राप्त कर उसके माध्यम से समाज में न केवल अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की अपितु अपने प्रभुत्व एवं आधिपत्य का भी विस्तार किया। पारद, गन्धक और खनिज द्रव्यों के योग से निर्मित रसौषधियों के द्वारा विशेष रूप से की जाने वाली चिकित्सा के माध्यम से रोगों का रोग दूर करना तथा रोग एवं जरा से जर्जरित शरीर में शक्ति एवं स्फूर्ति का संचार करना रसायन चिकित्सा का मुख्य उद्देश्य है। अतः रसायन चिकित्सा के द्वारा उन्होंने जन सामान्य को प्रभावित एवं आकर्षित किया। रसौषधि, चिकित्सा के चिकित्सीय प्रयोगों को दक्षिण भारत के अन्य चिकित्सकों ने भी अपना कर वहां के जन सामान्य एवं समाज में अपना विशिष्ट स्थान बनाया और अपने वर्ग को सिद्ध सम्प्रदाय के रूप में स्थापित किया। कालान्तर में यह रस चिकित्सा सिद्धों और जैन भट्टारकों के माध्यम से उत्तर भारत में पहुंची। वहां इसका और अधिक विकास, विस्तार एवं प्रसार हुआ जिससे रसौषधि चिकित्सा संबंधी अनेक ग्रंथों की रचना हुई ।
इस प्रकार आठवीं शताब्दी तक प्राणावाय पूर्व की परम्परा एवं विकास में दिगम्बर जैन साधुओं एवं आचार्यों का योगदान उल्लेखनीय है तथा तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् जैन भट्टारकों, जैन यति और मुनियों के द्वारा आयुर्वेदीय ग्रंथ निर्माण में किया गया योगदान भी उल्लेखनीय है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में से अनेक ग्रंथ आज भी राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र के हस्तलिखित ग्रंथागारों में भरे पड़े हैं दुर्भाग्य से इनमें से अनेक ग्रंथ अप्रकाशित हैं और अनेक अज्ञात हैं तथा और अनेक काल कवलित हो चुके हैं।
सन्दर्भ -
1. प्राग्भोगभूमिषु जना जनितातिरागाः कल्पद्रुमार्पित समस्त महोपभोगाः । दिव्यं सुखं समनुभूय मनुष्यभावे स्वर्ग ययुः पुनरपीष्टसुखे सुपुण्याः ॥
अर्हत् वचन, 15 ( 4 ), 2003
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
47
www.jainelibrary.org