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ग्रंथ -समाधि तंत्र। इनमें प्रथम वैद्यक ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, जबकि शेष दोनों विषयों के दोनों ग्रंथ उपलब्ध हैं। अनेक विद्वानों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है, कि उपर्युक्त श्लोक में "काय" शब्द से यह ध्वनित होता है कि पूज्यपाद स्वामी का कोई चिकित्सा ग्रंथ रहा है।
इसके अतिरिक्त श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रंथ कल्याणकारक की रचना में जिन आचार्यों, मुनिवरों के द्वारा रचित ग्रंथों को आधार बनाया है उनमें श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित शालाक्य तंत्र का भी उल्लेख है। गोम्मट देवमुनि ने भी पूज्यपाद द्वारा वैद्यामृत नामक ग्रंथ की रचना किए जाने का उल्लेख किया है। इसी प्रकार पार्श्व पण्डित ने भी पूज्यपाद स्वामी द्वारा आयुर्वेद के ग्रंथ की रचना किए जाने का संकेत किया है।'
इस प्रकार इन उद्धरणों से यह सुस्पष्ट है कि श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा आयुर्वेदाधारित ग्रंथ या ग्रंथों का प्रणयन किया गया था जो उनके उत्तरवर्ती मुनियों के दृष्टिगत थे। आयुर्वेदाधारित ग्रंथ निर्माण की यह परम्परा आगे भी चलती रही और मुनियों आचार्यों ने आयुर्वेद को अधिकृत कर ग्रंथों की रचना की। जिस मुनि प्रवर या आचार्य ने आयुर्वेद के जिस विषय को अधिकृत कर जिस ग्रंथ विशेष का निर्माण किया उसका उल्लेख करते हुए श्री उग्रादित्याचार्य लिखते हैं -
"श्री पूज्यपाद स्वामी ने शालाक्य तंत्र और पात्र केसरी मुनि ने शल्य तंत्र की रचना की। प्रसिद्ध आचार्य सिद्धसेन के द्वारा अगद तंत्र एवं भूत विद्या, दशरथ मुनि के द्वारा काय चिकित्सा, मेघनादाचार्य के द्वारा बालरोगाधारित कौमार भृत्य और सिंह नाद मुनीन्द्र के द्वारा वाजीकरण एवं दिव्यामृत (रसायन) तंत्र का निर्माण किया गया।1० दु:ख का विषय है कि इनमें से कोई भी ग्रंथ आज विद्यमान नहीं है। किन्तु इन ग्रंथों का आधार लेकर जिस ग्रंथ की रचना की गई वह है 'कल्याणकारक' जो लगभग विक्रम एवं ईसा की 9 वीं शताब्दी में लिखा गया। इसके बाद भी जैनाचार्यों द्वारा आयुर्वेद के ग्रंथ निर्माण का कार्य चलता रहा। इस प्रकार प्राणावाय (प्राणावाद) पूर्व की विकास यात्रा सुदीर्घ काल तक हमारे देश में चलती रही।
प्राणावाय पूर्व (जैनायुर्वेद) की यह प्राचीन परम्परा मध्ययुग से पूर्व ही लुप्त हो चुकी थी। क्योंकि प्राणावाय पूर्व परम्परागत शास्त्रों-ग्रंथों के आधार पर अथवा उनके सार रूप में ईसवीय आठवीं शताब्दी के अन्त में दक्षिण भारत के आन्ध्रप्रदेश के प्राचीन चालुक्य राज्य में दिगम्बराचार्य श्री उग्रादित्य ने "कल्याणकारक" नामक ग्रंथ की रचना की थी। वर्तमान में यही एक मात्र ऐसा ग्रंथ उपलब्ध होता है जिसमें प्राणावाय पूर्व का अनुसरण करते हए सम्पूर्ण अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तार से किया गया है। इस ग्रंथ में मुनिप्रवर उग्रादित्याचार्य ने प्राणावाय पूर्व के आधार ग्रंथ की रचना करने वाले पूर्ववर्ती समन्तभद्र, पूज्यपाद स्वामी, प्रभृति आचार्यों और उनके द्वारा लिखित ग्रंथों का उल्लेख किया है। श्री उग्रादित्याचार्य के पश्चात् किसी अन्य आचार्य द्वारा प्राणावाय पूर्व पर आधारित सर्वांग पूर्ण ग्रंथ का विवरण या उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि चौदहवीं शताब्दी के मुनि यश:कीर्ति द्वारा लिखित 'जगत् सुन्दरी प्रयोग माला' नामक ग्रंथ की जानकारी प्राप्त होती है। यह ग्रंथ अपभ्रंश संस्कृत मिश्रित भाषा में लिखा गया है। इसका उल्लेख स्व. श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेकान्त में किया है तथा इस पर कुछ प्रकाश डाला है। इसी प्रकार लगभग ई. सन् की 1360 के आसपास जैन कवि भंगराज के द्वारा लिखित "खगेन्द्र मणि दर्पण' नामक ग्रंथ की जानकारी मिलती है। यह ग्रंथ स्थावर विष की चिकित्सा (अगदतंत्र) पर आधारित है। यह ग्रंथ कन्नड़ लिपि में लिखा गया है जिसे मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा कन्नड़ सीरीज के अन्तर्गत
अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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