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टिप्पणी-1
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर)
जैन तीर्थंकर मूर्तियों में श्रीवत्स
-जया जैन*
जैन धर्म एवं कला में 'श्रीवत्स' का महत्वपूर्ण स्थान है। जैन धर्म में 'श्रीवत्स' को मांगलिक चिन्ह के साथ महापुरुषों के लांछन के रूप में भी मान्यता दी गई है। 'श्रीवत्स' पुण्यात्माओं का एक शारीरिक लक्षण है। यह तीर्थकरों के वक्ष स्थल पर रहने वाला चिन्ह है। इसका प्रारम्भिक स्वरूप एक मांगलिक चिन्ह के रूप में था, जो आगे चलकर महापुरुषों के लक्षण के रूप में विकसित हो गया।
श्रीवत्स 'जिन' के हृदय से प्रस्फुटित कैवल्य (ज्ञान) का साक्षात् स्वरूप भी माना गया है।
भाषागत अर्थ की दृष्टि से श्रीवत्स की उद्भावना का प्राथमिक स्वरूप स्पष्ट होता है। 'श्रीवत्स' दो शब्दों से मिलकर बना है 'श्री' तथा 'वत्स'। 'श्री' सुख, सम्पत्ति एवं सृजन का प्रतीक है। 'श्री' की कृपा का पात्र होने के नाते मानव उसकी सन्तान (वत्स) के समान है, अपने पुरुषार्थ, परिश्रम तथा सृजन शक्ति से मनुष्य 'श्री' के गुणों से समन्वित है', जिसे 'श्रीवत्स' प्रतिबिम्बित करता है। 'श्री' गणों के कारण इसे लक्ष्मी का प्रतीक भी माना जाता है।
अत: 'श्रीवत्स' अर्थात् 'श्री' का पुत्र होने के कारण 'श्रीवत्स' भी सुख, समृद्धि व संपन्नता का द्योतक है।
महापुरुष लक्षण के रूप में 'श्रीवत्स' को जैन तीर्थकरों, बुद्ध मूर्तियों तथा विष्णु आदि विभिन्न देवताओं के वक्ष स्थल पर उत्कीर्ण किया गया है। श्रीवत्स का अंकन भारतवर्ष में लगभग तीन हजार सहस्र वर्षों से पाया गया है। भारतीय कला में 'श्रीवत्स' का सर्वाधिक प्राचीन अंकन जैन मूर्तियों में पाया जाता है। मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त श्रीवत्स चिन्ह के विविध अंकन जैन अवशेषों में पाये गये हैं। वहाँ स्थित प्राचीन जैन स्तूप के वेदिका स्तंभों, आयागपट्टों तथा तीर्थंकरों की मूर्तियों में भी श्रीवत्स के अंकन हैं। उदयगिरि की जैन गुफाओं में श्रीवत्स तथा त्रिरत्न चिन्हों को पूज्य प्रतीकों में उच्च स्थान दिया गया है। रानी गुम्फा के प्रवेश द्वारों पर उत्कीर्ण मेहराब पर 'त्रिरत्न' तथा 'श्रीवत्स' के प्रतीक को उत्कीर्ण किया गया है। खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख में भी इसका विशिष्ट प्रयोग किया गया है। अभिलेख की पांचवीं पंक्तियों के सीध में ऊपर श्रीवत्स और उसके नीचे स्वस्तिक का एक - एक चिन्ह उत्कीर्ण है। श्री शिवराम मूर्ति के मतानुसार हाथी गुम्फा अभिलेख में 'स्वस्ति' एवं 'श्री' लिखने के स्थान पर स्वस्तिक एवं 'श्रीवत्स' का अंकन कर दिया गया है। मथुरा से प्राप्त आयागपट्ट पर श्री चिन्ह अंकित मिले हैं। कुषाणकाल के पहले की जैन तीर्थकर की मूर्तियों का अंकन केवल आयागपट्टों के केन्द्र में भी पाया गया है, जिनमें श्रीवत्स प्रतीक का अंकन वक्ष पर नहीं है। कुषाणकालीन मथुरा की जैन मूर्तियों की पहचान मात्र श्रीवत्स प्रतीक से संभव हो सकी है। मथुरा से प्राप्त होने वाली तीर्थंकरों की मर्तियों के वक्षस्थल पर 'श्रीवत्स' का जो लांछन पाया गया है वह शुगयुगीन श्रीवत्स का अलंकृत रूप ही है। श्रीवत्स के स्वरूप का विकास कुषाण तथा गुप्तकालीन तीर्थंकर मूर्तियों में देखने को मिलता है।
कालान्तर में 'श्रीवत्स' के प्रतीक में नितान्त रूप भिन्नता और लाक्षणिकता आ गई है। श्रीवत्स का आकार शुंगयुगीन श्रीवत्स के रूप में हमें भारतीय उत्कीर्ण - शिल्प में
अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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