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और सोमवंश चले। हरि और काश्यप आदिनाथ के पुत्र थे। नागवंश के समस्त वैदिक व हिन्दु पौराणिक संदर्भ ठीक से प्राप्त नहीं होते हैं। ऐसा लगता है जानबूझ कर या उपेक्षा भाव से इस वंश के संदर्भो/सूत्रों को अलक्षित कर दिया गया। यह संभवत: इसलिए भी किया गया हो कि नागों की परंपरा श्रमण परंपरा थी। इसीलिए नागों के प्रत्येक उत्थान - परिवर्तन को अभिलेखित करना आवश्यक न समझा गया हो। इस स्थिति को कई इतिहासकारों ने रेखांकित किया है। डॉ. जायसवाल लिखते है - 'पद्मावती' जैसी कला संस्कृति से पूर्ण नगरी के वर्णनों का इतिहास में अभाव - आश्चर्यजनक लगता है - इस पर ध्यान जाता है कि नागवंशी राजाओं का वहाँ राज्य था। भले ही उस समय वे वैदिक परम्पराओं को भी मानने लगे थे। भारत के सभी राजा अपनी व्यक्तिगत आस्था के अतिरिक्त अन्य धार्मिक परम्पराओं का भी सम्मान करने के लिए बाध्य थे - जैसे अशोक का रूझान बौद्ध धर्म की तरफ था किन्तु उसके द्वारा कई जैन उपक्रमों में सहयोग देते हुए देखा जा सका है वैसे ही सम्प्रति का रूझान जैन धर्म की तरफ था किन्तु उसने बौद्धावलंबियों के प्रति विरोध भाव नहीं रखा।
इतिहास और कला के बहुआयामी स्वरूप तथा उनका एक दूसरे पर आश्रित होना स्वयम् सिद्ध है। अलिखित इतिहास का जो ढांचा खड़ा हुआ है वह उपलब्ध चित्रों व शिल्पों के आधार पर हुआ।
लक्ष्मण भांड ने डॉ. जायसवाल से सहमत होते हुए लिखा है 'शतकों तक जनमानस को प्रभावित करने वाली नागवंशियों एवं उनकी राजधानी पद्मावती का उल्लेख तक भारतीय इतिहास में न होना पीड़ादायक सत्य है।
यहाँ यह ध्यान दिया जा सकता है कि पद्मावती के नागों के पूर्व वहाँ नागवंश का अस्तित्व था जिसका अंत करने के लिए जनमजेय ने प्रभावशाली अभियान छेड़ा था - उन्हें पीछे हटने के लिए बाध्य भी कर दिया गया था किन्तु अंतत: जनमजेय व उसके वंशजों को हार माननी पड़ी। ऐसा लगता है नागवंशी परंपरा ई.पू. 9 वीं 10 वीं शताब्दी में श्रमण एवं वैदिक समूह में विभाजित हो गये। एक परंपरा (श्रमण) में ब्रह्मदत्त व पार्श्वनाथ हुए और दूसरे समूह में पद्मावती के नाग हुए। श्रमण परंपरा प्राचीन थी जिसके एक प्रमुख व्यक्ति थे सुपार्श्वनाथ। बाद में - नागवंश का ज्ञात विवरण महाभारत काल तक उपलब्ध नहीं है। इसके बाद की परंपरा का विवरण पहले किया जा चुका है। वैदिक संदर्भो में जो संघर्ष बताये गये हैं वे संभवत: वेदानुयाइओं और द्रविड़ नागों के बीच
हुए थे।
सिंधु घाटी में जैन चिन्तन का अस्तित्व माना जा रहा है। वैदिक सभ्यता के उदय के साथ - साथ पश्चिम भारत में नाग व कुरुवंशियों में संघर्ष हुआ। पहले तो नाग पराजित हुए किन्तु बाद में विजय उनके हाथ लगी। इस काल में नाग जाति का मिश्रण वैदिक आर्यों से हुआ और दो धारायें दिखाई देती हैं :1. श्रमण परंपरा के नाग जिसमें आगे चलकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती व पार्श्वनाथ हुए। 2. वैदिक परंपरा के नाग जिसमें पद्मावती के नाग हुए।
'नाग' को पहचानते हुए धवला' में वर्णन किया गया है। 'फणोपलक्षित: नागा:' फण से उपलक्षित भवनवासी देव नाग कहलाते हैं। पुराणों में आये कई शब्दों के हम अर्थ ढूंढने का प्रयत्न करें तो कई संदर्भ स्पष्ट हो जाते हैं - जैसे देव, विद्याधर, गंधर्व, राक्षस, वानर, नाग आदि जातियाँ या वंश थे जिससे समूह पहचाने जाते थे। बाद के काल में साहित्यिक कथानकों के कारण कई जातियाँ श्रेष्ठता या हीनता की रूढता में बंध गई व लोकमानस में संदर्भो के अभाव में अतिमानवीय या मनुष्य के अतिरिक्त शक्ति रूप में स्मरण रह गई। नागवंश के लोग सर्प फण का प्रतीक अपनाते थे। हम ध्यान दें हमारे पुराणकारों ने पुरावा सम्हालकर अभिलेखित किया है कि भगवान सुपार्श्वनाथ अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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