________________
व पार्श्वनाथ के मस्तिष्क पर सर्पफण बनाया जाता है क्योंकि दोनों ही नाग / उरंग वंश में हुए थे। नाग वंश का प्रतीक सर्पफण तो है ही किन्तु दोनों की जन्म नगरी भी काशी है। इसमें दो ऐतिहासिक आधार छिपे हैं कि गंगा द्रोणी व विध्य उपत्यका पर स्मरण से परे काल में नागवंश का शासन था और जिनकी राजधानी काशी थी। इक्ष्वाकु कुल में कई वंश हुए जिसमें उरग / नाग वंश भी हुआ। काल के थपेड़े खाते हुए सभी वंशपरम्परायें खंडित व मिश्रित हो गई किन्तु शिल्प व साहित्य पुनः उस परंपरा को स्थापित व स्मृति में जीवित रखते हैं मोहनजोदडो के अवशेषों में भी सर्पफण युक्त मूर्तियाँ मिली हैं।
यह मूर्तियाँ नाग वंशियों के सिंधु घाटी सभ्यता में अस्तित्व की सूचक हैं। इस सभ्यता के पतन के बाद हम हड़प्पा सभ्यता के दस्तकारों आदि को पूर्व और दक्षिण की ओर पलायन करते हुए पाते हैं। दक्षिणांचल मे फणावली युक्त सुंदरतम मूर्तियों का निर्माण हुआ है और उनके कई अतिप्राचीन
8
है।
इस चित्र का एक दूसरा पक्ष भी है
(1) महाभारत पूर्व सिन्धु घाटी व नर्मदाघाटी के श्रमण नाग (अपने ज्ञान विज्ञान के कारण विद्याधर रूप में प्रसिद्ध ) तक्षशिला क्षेत्र और द्वारिका क्षेत्र में केन्द्रित हो गये । द्वारिका का निर्माण अनायास ही नहीं हुआ। सिन्धु घाटी क्षेत्र के दस्तकारों ने द्वारिका क्षेत्र को उन्नत बनाया यादव वंशी कृष्ण और बलराम ने श्रमण परम्पराओं के इस विकसित स्थान को अपने विचारों के अनुकूल पाकर अपनी राजधानी बनाया। पातालपुरी को यहीं कहीं ढूंढा जाना चाहिए।
(2) तक्षशिला के नागों ने वैदिक केन्द्र कुरू राज्य पर अपना दबाव बनाये रखा और अन्ततः उन्हें पूर्व की ओर धकेल दिया जहाँ पहले से ही श्रमण सभ्यता का अस्तित्व था व नाग वंश का
प्रभाव था ।
(3) वैदिक राजाओं द्वारा पूर्व की ओर आक्रमण और अग्रघर्षण को चित्रित करते हुए भगदानसिंह का यह मत उचित ही है कि जब हम इन आर्यों को पूर्व की ओर अग्रसर होते हुए देखते हैं और एकांगी बढ़त पर बल देते हैं तो इसके साथ इस बात पर ध्यान नहीं देते कि इनको इसी के साथ पश्चिम में इतने ही बड़े भाग को छोड़ना पड़ रहा है और वह भी किसी दबाव में। यह दबाव अन्य कोई नहीं तक्षशिला व पातालपुरी के नागों का था।
(4) वैदिक राजाओं को पूर्व में भी कठिनाई का सामना करना पड़ा क्योंकि यहाँ भी नाग राजाओं और व्रात्यों का आधिपत्य था। वैदिक समूह में धार्मिक, सामजिक व राजनैतिक छटपटाहट जो इस काल ( ईसा से 10 वीं 8 वीं शती पूर्व) में पाते हैं वह इसी परिस्थिति का परिणाम है।
यादव वंश द्वारा द्वारिका के नेतृत्व में इस कार्य का प्रारंभ हुआ व नागवंश ने काशी के नेतृत्व में इस कार्य को आगे बढ़ाया। नेमी, कृष्ण और पार्श्वनाथ इस परिवर्तन के प्रमुख नेता थे। इस परिवर्तन को आकार दिया वज्जिसंघ ने वैशाली को केन्द्र बनाकर चेटक ने एक महत्वपूर्ण राजनैतिक संरचना बनाई जिसने राजगृही, कोशांबी, दशार्ण, कौशल, अंवति, पांचाल, सिंधु सौवीर, नागहस्तिपुर, अहिच्छत्रा, मथुरा, पलाशपुरा, तक्षशिला, काशी, चंपा, कलिंग, हेमांग, आदि भ्रमण केन्द्रों के विकास को संभव बनाया। महावीर इस सोच के सफलतम प्रवक्ता थे। प्रमुख राजा थे।
38
-
चण्डप्रद्योत विद्रवाज
इन राजशक्तियों ने भ्रमण केन्द्र विकसित किये। गणधरों ने इन केन्द्रों को अपने ज्ञान से सींचा कालान्तर में सम्राट चन्द्रगुप्त व सम्राट एल खारवेल ने इस धारा को पुनः महत्वपूर्ण राष्ट्रीय आधार दिया।
Jain Education International
श्रेणिक बिंबिसार, शतनीक, दशरथ, उदयन, दधिवाहन, जीतशत्रु, प्रसेनजित जीवन्धर,
For Private & Personal Use Only
अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
www.jainelibrary.org