Book Title: Arhat Vachan 2003 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 24
________________ हिन्दू धर्म ग्रन्थों में भगवान ऋषभदेव 1. सृष्टि के आदि में जद ने स्वयम्भू मनु एवं सत्यरूपा को अवतरित किया तब ही पाँचवे क्रम पर थे ऋषभदेव । प्रथम सतयुग के अन्त में उनका उद्भव हुआ था। कहा जाता है अब तक 28 सतयुग बीते हैं। जोधपुर के कन्नूलाल एगम दिसम्बर 1904 एवं जनवरी 1905 के "थियासूफिस्ट" समाचार पत्र में लिखते हैं कि - जैन धर्म व्युत्पत्ति एवं इतिहास संशोधन के लिए अत्यंत दुर्लभ एवं प्राचीन मत 2. है। 3. जैन धर्म अत्यंत प्राचीन है, जैन साहित्य के चार भेद हैं- प्रथमानुयोग, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग द्रव्यानुयोग जिनमें भगवान आदिनाथ की वाणी संग्रहीत है। वे बहुत प्राचीन, प्रसिद्ध एवं 24 तीर्थकरों में प्रथम थे। इस प्रकार के अभिप्राय को मि. आले जे. ए. ने लिखा है। प्यारिस के डॉ. ए. गिर्नटजी लिखते हैं कि - 4. जैन धर्म में मानव की उन्नति के लिए अत्युपयुक्त विषय हैं, यह धर्म स्वाभाविक, स्वतंत्र एवं पूर्वापर विरोधरहित है। ब्राह्मण मतों से श्रेष्ठ, सरल एवं विषयगर्भित है। यह मत बदल जैसा नास्तिक भी नहीं है। " जर्मनी के डॉ. जोहानिस् हर्दल एम.ए., पी.एच.डी. लिखते हैं कि 5. मैं जैन धर्म एवं जैनाचार्यों में निहित उत्तम नियम, आचार विचारों को अपने देशवासियों को सुनाऊँगा। जैनधर्म के ग्रन्थ बौद्धधर्म ग्रन्थों से भी श्रेष्ठ हैं में जैन धर्म के ग्रन्थों को पढ़ते-पढ़ते उनको चाहने लगा हूँ। ' 4 रैस डेविड्स एवं आर बर्न अपने युक्तप्रान्त्य के रिपोर्ट में कहते हैं कि - 6. अब इस विषय में ज्यादा न कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि इस कल्पकाल में जैन मत का प्रथम प्रचारक श्री ऋषभस्वामी था, उनको जैन समुदाय 24 तीर्थकरों में प्रथम मानते हैं, डॉ. जैकोबी के मतानुसार, बौद्ध धर्म ग्रन्थों में महावीर स्वामी को निर्ग्रन्थों के अधिपति मानते हैं, वह जैन धर्म के संस्थापक नहीं है जब क्षत्रिय ऋषभस्वामी संसार से विरक्त हुए तब उनके साथ चार हजार राजा महाराज दिगम्बर मुनि बने । परन्तु मात्र ऋषभस्वामी चारित्रपालन में समर्थ हुए। शेष सब चारित्रपालन में असमर्थ होकर, भ्रष्ट होकर 363 पाखंडी मतों का प्रचार करने लगे ( इनमें शुक्र भी एक है) कहने का तात्पर्य यह है कि जैन मत बहुत प्राचीन है। " 5 स्वामी राममिश्र शास्त्रीजी ने काशी में अपने एक भाषण में कहा था कि - 7. वैदिक एवं जैन मत सृष्टि के आदि से हैं। महान् महान् आचार्यों द्वारा जैन मत का खण्डन देखकर हँसी आती है, जैनाचार्यों के हुँकार से दसों दिशाओं में शब्द घुमड़ने लगते हैं। जैनियों का ग्रन्थ भंडार अगाध है वेदव्यास ने जब ब्रह्मसूत्र को रचा था तब जैन मत विद्यमान था। वेदों में विष्णुपुराणादि में भी अनेकान्त ( स्याद्वाद) मिलता है । लोकमान्य बालगंगाधर तिलक अपने मराठी 'केसरी' में लिखते हैं कि 8. जैन धर्म की प्राचीनता को ग्रन्थों से एवं सामाजिक व्याख्यानों से जाना जा सकता है यह विषय निर्विवाद एवं मतभेद रहित है इस विषय में इतिहास का सुदृढ अर्हतु वचन, 15 (4), 2003 22 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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