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8. शोधी - आत्मा का पर से शोधन करने वाला शोधी होता है। मुनि का ह्रदय अकलषित और पवित्र होता है इसीलिए उसे शोधी कहा गया है। इसका वैकल्पिक अर्थ सहृद हो सकता है। वह समस्त प्राणियों के साथ मैत्री का व्यवहार करता है। इसीलिए सुदृढ़ अर्थ भी संगत है। 9. अनिदानी - निदान न करने वाला होने से श्रमण अनिदानी होता है। वह पॉद्गलिक पदार्थों की आकांक्षा नहीं करता। जो निदान युक्त होता है उसके चरित्र नहीं होता क्योंकि निदान के साथ हिंसा की अनुमोदना जुड़ी हुई है। 10. अल्पोत्सुक्य - श्रमण अल्प उत्सुकता वाला अनुत्सुक होता है। मुनि आत्मा में रमण करता है इसीलिए पदार्थ के प्रति उसके मन में औत्सुक्य नहीं होता। वस्तु के प्रति व्याकुलता या उत्कण्ठा से वह मुक्त होता है। यह स्थिति सुख की स्पृहा का निवारण करने पर प्राप्त होती है। 11. अबहिर्लेश्य - संयम से अबहिर्भूत चित्तवृत्ति वाला अबहिर्लेश्य कहलाता है। मुनि की भावधारा, संयम में अन्तर्लीन रहती है इसलिए वह अबहिर्लेश्य है। अबहिर्लेश्य बनने के लिए आचार्य महाप्रज्ञ "रहें भीतर जीएं बाहर' का संबोध देते हैं। 12. सुश्रामण्यरत - श्रमण सम, शम, श्रम की साधना करता है। सम - समानता की अनुभूति, शम - शांति, श्रम - क्लम - तपस्या में रत होता है। इनसे उसका श्रामण्य अतिशायी बनता है। इसलिए उसे सुश्रामण्यरत कहा जाता है। 13. निग्रंथ प्रवचन के अनुसार चलने वाला - निग्रंथ प्रवचन में श्रद्धा, प्रतीति, रूचि होना - पूर्ण समर्पण की अभिव्यंजना हैं। निर्गथ प्रवचन को निरंतर आगे रखकर चलना हार्दिक श्रद्धा का प्रतिफलन है।
मुनि, साधु, भिक्षु आदि शब्द भी श्रमण के लिए प्रयुक्त होते हैं। "
"नाणेण य मुणी होइ'' - जो ज्ञान की आराधना करता है वह मुनि होता है। T, निर्वेद, विषय- त्याग, सुशील-ससंर्ग, आराधना, तप, ज्ञान-दर्शन, चारित्र, विनय, क्षाति, मार्दव, आर्जव, विमुक्तता, अदीनता, तितिक्षा, आवश्यक शुद्धि - ये भिक्षु की पहचान है।
श्रमण के लिए प्रयुक्त ये विविध विशेषण साधक के जीवन चित्र को विविध आयामों से प्रस्तुत करते हैं। "पणया वीरे महावीहि" त्याग के महान पथ पर महान व्यक्ति ही बढ़ सकता है।
प्राप्त : 22.04.02
अर्हत् वचन, 15 (4). 2003
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