Book Title: Arhat Vachan 2003 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 32
________________ 2. गुप्त ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य की 9 गुप्तियों, शील की नव बाड का पालन करने वाला शील रक्षा के लिए नौ गुप्तियों व दसवें कोट का उल्लेख करते गुप्त ब्रह्मचारी होता है हुए कहा गया 3. चाई, असंग संग का त्याग करने वाला मुनि के लिए संग, लेप या आसक्ति का त्याग करना आवश्यक है। स्वामी कार्तिकेय के अनुसार मिष्ट भोजन, राग द्वेष उत्पन्न करने वाली वस्तुएं और ममत्व के वास स्थान उनको छोडना संग त्याग है। संयम, संवर और समाधि की विशिष्ट उपलब्धि संग त्याग से ही संभव है। श्रमण असंग होता है। - 4. लज्जू रज्जूवत् अवक व्यवहार करने वाला, संयमी लज्जू कहलाता है। धर्म कहां ठहरता है ? इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहा गया "सो ही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई।" जो ऋजुभूत हेता है, सरल होता है उसमें धर्म निवास करता है। आचारांग भाष्य के अनुसार जिसकी प्रज्ञा सत्य होती है वह शरीर वाणी व भाव से ऋजु तथा कथनी और करनी से समान होता है इस प्रकार की प्रज्ञा से संचालित अन्तःकरण ही हिंसा और विषय से विरत हो सकता है कोई भी साधक केवल बाहयचार से हिंसा और विषय से विरत नहीं हो सकता है इस प्रकार ऋजुता व अकरणीय कार्य में लज्जा करना मुनि के चरित्र का विशेष लक्षण है। - 1 5. धन्य गृहस्थ धन सम्पदा को प्राप्त कर अपने आपको धन्य मानता है वैसे ही मुनि अध्यात्मिक सम्पदा को उपलब्ध कर धन्य होता है। जो संबंधातीत जीवन जीता है, उसके पास अपना कुछ भी नहीं होता, किन्तु वह संपूर्ण विश्व की सम्पदा का सहज स्वामी बन जाता है। स्थान विजन हो, कामकथा वर्जन आसन का संयम हो, आंखों का कानों का संयम, स्मृति का संयम सक्षम हो। सरस और अतिमात्र अशन न करे न विभूषाभाव भजे, बने न विषयासक्त व्यक्त दसविध विधान से शील सझे । - 6. खंतिखमे हुए कहा गया 30 आकिन्चनोहमित्यारव त्रैलोक्याधिपतिर्भवेत् । " योगिगम्यमिदं तथ्यं रहस्यं परमात्मनः ॥" श्रमण क्षमापूर्वक सहन करने वाला होता है शांति को परिभाषित करते सहनं सर्वकष्टानामप्रतिकारपूर्वकम्। चिन्ताविलापरहित्वात्, क्षांतिरित्यभिधीयते ॥ बिना किसी प्रतिकार के, चिन्ता विलाप रहित अवस्था में सभी कष्टों को सहन कर लेना क्षान्ति है। कुछ लोग असमर्थ होने के कारण सहन करते हैं अथवा उन्हें सहन करना पड़ता है। मुनि समर्थ होते हुए भी प्रतिकूल परिस्थिति को राहन करता है इसीलिए वह क्षान्तिक्षम कहलाता है। Jain Education International 7. जितेन्द्रिय इन्द्रिय विकार से मुक्त जितेन्द्रिय है। भगवती वृत्ति में गुप्तेन्द्रिय व जितेन्द्रिय में एक मेदरेखा खींची गई है, जिसमे इन्द्रिय विकार का अभाव नहीं है किन्तु उनका गोप कर लेता है यह गुप्तेन्द्रिय और जिसमें इन्द्रिय विकार उत्पन्न नहीं लेता, वह जितेन्द्रिय है। 8. शोधी आत्मा का पर से शोधन करने वाला शोधी होता है। मुनि का हृदय अकलुषित अर्हतु वचन 15 (4), 2003 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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