________________
प्रभास पुराण में -
भवस्य पश्चिमें भागे वामनेन तप:कृतम्॥ तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः।। 1।। पद्मासनसमासीन: श्याममूर्तिर्दिम्बरः ।। नेमिनाथ: शिवोऽथैवं नाम चक्रेऽस्य वामनः ।। 2।। कलिकाले माहाघोरे सर्वपाप प्रणाशकः ।।
दर्शनात्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रभद: ।। 3 ।।16 पद्मासन में बैठे हुए, श्याम वर्ण वाले नग्न नेमिनाथ का दर्शन वामन को हुआ। नेमिनाथ का नाम शिव है। महाघोर कलिकाल में सर्वपाप प्रणाशक नेमिनाथ के दर्शन से, स्पर्श से, कोटियज्ञ का फल प्राप्त होता है। ऐसा वामन ने कहा है। नगरपुराण एवं भावावतार रहस्य में :
अकारादिहकारांतं मूर्धाधो रेफसंयुतं। नादबिन्दु कलाक्रान्तं चन्द्रमंडलसन्निभम्।। 1।। एतददेवि! परं तत्त्वं यो विजानाति तत्त्वत:।
संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत्परमां गतिम।। 2 ।।17 यहाँ "अर्ह' का अर्थ है परमतत्व, नादबिन्दु कलाक्रान्त चन्द्रमंडल के समान इस तत्वरहस्य को जाननेवाला संसार बन्धन से विमुक्त होकर मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। यह "अर्ह' जैन धर्मावलम्बियों का पवित्र बीजमंत्र है। मनुस्मृति में :कुलादिबीजं
सर्वेषामाद्योविमलवाहनः । चक्षुष्मान यशस्वी वाभिचन्दोऽथ प्रसेनजित।। 1।। मरुदेवी व नाभिश्च भरते कुलसत्तमाः ।। अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः ।। 2 ।। दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरासुर नमस्कृतः।।
नीतित्रितयकर्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः ।। 3 ।।18 इन पद्यों में विमलवाहन आदि मनुओं को, सुरासुरवंदित युग का आदिपुरुष आदि जिन का उल्लेख है। विमलवाहनादि मनु, जिन जैनियों को पूज्यनीय है। सो 'जिन' का वर्णन जैन धर्मग्रन्थों में आता है। इससे जैन मत की पुरातनता को जाना जा सकता है। पंचमवेद नाम से प्रसिद्धि प्राप्त महाभारत में :
मध्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्दभक्षणं। ये कुर्वति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः।। 1। वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः। वृथा च पौष्करी यात्रा कृत्स्नं चांद्रायणं वृथा ।। 2 ।। चातुर्मास्ये तु संप्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः।
तस्य शुद्धिर्न विद्येत चांद्रायणशतैरपि।। 3 ।। 19 मद्यपान, मांसभक्षण, रात्रिभोजन, कन्दभक्षण आदि अहिंसा प्रधान जैन धर्म में निषिद्ध हैं। ऊपरी विषयों में इन्हीं विषयों का प्रतिपादन करके, इनका सेवन जो करते हैं उनकी तीर्थयात्रा, जप-तप, एकादशीव्रत, हरिजागरण, पौष्कर यात्रा, कृत्स्न चांद्रायणव्रत आदि व्यर्थ हो जायेंगे। चातुर्मास रात्रिभोजन करने वालों को चांद्रायणव्रतों से भी शुद्धि नहीं होती। इस अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
25
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org