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प्रकार इन श्लोकों में जैन श्रावकाचारों का वर्णन है।
भागवत में कहा है
लक्षण है।
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मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुबंरपंचकः । निराहारपरित्यक्त एतद्ब्राह्मणलक्षणम् ॥'
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मद्य, मांस एवं मधुत्याग के साथ उदुम्बरपंचक त्याग, रात्रिभोजन त्याग ब्राह्मण का
भर्तृहरि के श्रृंगार शतक में कहा गया है।
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इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि अनुरागवालों में हर देहार्थ में प्रियतमा पार्वती को धारणकर शोभायमान है। स्त्रीसंग त्यागि 'जिन' अनुरागरहितों में सर्वश्रेष्ठ होकर शोभायमान हैं। शेष सब जन दुर्निवार कामबाण नामक सर्प विष से मूर्छित रहकर काम-वासनाओं के भोक्ता बनकर जीवनमुक्ति पाने में असमर्थ रहे हैं।
वैराग्यशक में कहा गया है -
एको रागीषु राजते प्रियतमादेहार्धधारी हरो निरागेषु जिनो विमुक्तललवासंगो न यस्मात्परः दुर्वारस्मरबाणचन्नगविषव्यासक्तमुग्दो शेष: कामविडंबितो हि विषयान् भाक्तुं न मोक्तुं क्षमः ॥ 97 || 21
जन:
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ऐसा कहा हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि शांत, हस्तपात्र, नग्न हुये हो, मैं अपने कर्मों का नाश जिन दिगम्बर होता है। उस अवस्था की प्राप्ति मुझे कब प्रार्थना करने से जैन धर्म की उत्कृष्टता विदित होती है।
ऋग्वेद में आया है -
ओं त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान् चतुर्विंशतितीर्थकरान् ऋषभाद्यावर्धमानांतान् सिद्धान् शरणं प्रपद्यो ओं पवित्रं नग्नमुपाविविप्रसामहे एषां नग्ना (नग्नये) जातिर्येषां वीरा। 23
एकाकी निस्पृहः शांत: पाणिपात्रो दिगम्बर: कदा शंभो भविष्यामि कर्मनिर्मूलने क्षमः ॥ 22
तीनों लोकों में प्रतिष्ठित, सिद्ध ऋषभादि वर्धमानांत चतुर्विंशतितीर्थंकरों के शरण में जाता हूँ। जिनेश्वर की नग्नता पवित्र है। वह वीर क्षत्रियों का लक्षण है। ऐसे ऋग्वेद में निहित उल्लेख को मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ से जान सकते हैं।
यजुर्वेद में कहा गया है
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हे शम्भु ! तुम अकेले, निस्पृह, करके कब तुम्हारे जैसा बनूँगा ? होगी ? इस प्रकार शम्भु से
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ओं नमो अर्हतो ऋषभो ओं ऋषभ पवित्र पुरहूतमध्वरं यज्ञेषु नग्नं परमं माहसंस्तुतं वरं शत्रुं जयंतं पशुरिंद्रमाहुरिति स्वाहा। ओं त्रातारमिंद्रं ऋषभं वदंति अमृतारमिंद्रं हवे सुगतं सुपार्श्वमिद्रं हवे शक्रमजितं तत्वर्धमानपुरुहूत मिंद्रमाहुरिति स्वाहा। ओं नग्न सुधीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्भं सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमर्हतमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् स्वाहा | 24
ऋग्वेद में पुन: कहा गया है -
ओं स्वस्तिन इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्व वेदा: स्वस्तिन स्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु । दीर्घायुस्त्वायुर्बलायुर्वा शुभजातायु ओं रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा वामदेव शांत्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा। 25
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अर्हत् वचन, 15 ( 4 ), 2003
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