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आधार है अ. 526 ई. पूर्व भी जैन मत था यह सिद्ध ही है भगवान महावीर स्वामी द्वारा जैन धर्म को पुन: प्रकाश में लाने को 2400 वर्ष बीते हैं। बौद्ध धर्म की स्थापना से पहले ही जैन धर्म प्रकट हुआ था यह निश्चित है। चौबीस तीर्थंकरों में भगवान महावीर स्वामी अंतिम थे। इससे भी जैन धर्म की प्राचीनता जानी जा सकती है। उसके बाद ही बौद्ध धर्म प्रचलित हुआ यह बात भी निश्चित है।"
जैनियों का यह अभिप्राय
व्यक्ति के कार्य से ईश्वर
इन्दौर के वासुदेव गोविन्दजी आप्टे का भाषण "विविध ज्ञान विस्तार" पत्रिका में प्रकाशित हुआ था वह इस प्रकार है 'जैन नास्तिक हैं या आस्तिक ? आत्मा, कर्म एवं सृष्टि नित्य हैं। उनकी रचना या नाश का कर्ता कोई नहीं है। है कि हम जो कर्म करते हैं तदनुसार फल प्राप्त होता है। का कोई सम्बन्ध नहीं है। व्यक्ति को अपने कर्मानुसार अच्छे बुरे फल मिलते हैं । ईश्वर पूजा, सेवा स्तुतियों से प्रसन्न होकर हमारे ऊपर विशेष कृपा रखता है या न्याय नामक दुखकारी कांटे को बढ़ाता है या घटाता है। इस तरह की कोई भी मान्यता जैन धर्म में नहीं मिलती। संसार के झंझट में परमेश्वर नहीं पड़ता। यही जैन धर्मावलम्बियों का अभिप्राय है मनुष्य आत्मा रत्नत्रय साधना द्वारा उन्नति प्राप्त करते करते निर्वाण की ओर जाती है। अर्थात् ईश्वर रूप होती है। वैसे ईश्वर सृष्टि का कर्ता, शासक या संहारकर्ता नहीं होता। जैन धर्मावलम्बियों का मत यह है कि पूर्णावस्था को प्राप्त हुई आत्मा ही ईश्वर है ईश्वर के कार्य के सम्बन्ध में हिन्दू और जैन अभिप्राय में भेद है "जैन नास्तिक हैं" ऐसा निर्बल और व्यर्थ अपवाद को जैनियों पर चढ़ाया गया है।
कर्म के अनुसार फल प्राप्ति
इस नियमानुसार यह दुनिया चल रही है, जैन मानते हैं कि ईश्वर की ओर से यह कार्य कहीं से भी नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता के पाँचवे अध्याय में कहा है।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादस्ते करयचित्पापं न कस्य सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यंति जंतवः ॥
"प्रभु परमेश्वर जीवों की सृ, कर्मों का कर्ता, कर्मफलों का संयोजक (भोक्ता) भी नहीं है। वे तो स्वभाव से चलते हैं। किसी के भी पाप या पुण्य को परमेश्वर नहीं लेता । ज्ञान के ऊपर अज्ञान परदा (आवरण) आने पर अज्ञानी जीव मोह में व्यस्त रहते हैं।"
यह नहीं सूझता कि "इस जगत् की रचना या सृष्टि वर से नहीं हुई है" प्रामुख्यता देने की बात यह है कि आस्तिक और नास्तिक शब्दों के विचार करते समय ईश्वरास्तित्व और कृतित्व के सम्बन्ध में संयोजन न करके व्याकरणानुसार फणिनि जैनों के ऊपर नास्तिकता को नहीं चढ़ाया जा सकता।
पाणिनि ने ऐसे कहा है
परलोकोऽस्तीति मतिर्यस्यास्तीति आस्तिक: ।
तथा परलोको नास्तीति मतिर्यस्यास्तीति नास्तिकः ॥ १
अर्थात् 'परलोल है ऐसा जो मानता है वह आस्तिक है और परलोक नहीं है' ऐसा जो मानता वह नास्तिक है।
उनके वचनानुसार जगत् का वर्णन एवं अस्तित्व स्वर्ग नरक एवं मर्त्य है। दिगम्बर
अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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