Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 22
________________ २०, बर्व ३७,कि.१ लगता है इससे अपने परिणामों की आसक्ति का पता ढंकने को कुछ नहीं रहा । यह परम उत्कृष्ट मुनि अवस्था मगाता है। अब स्त्रीकामाग करके पूर्ण ब्रह्मचर्य को को प्राप्त होता है। धारण करता है। फिर घर के बाराम का भी त्याग कर अब भोजन को भी प्रकृति पर छोड़ दिया। इस शरीर देता है। सवारी पर चढ़ने की भी अपेक्षा नही रही। कोई की कोई अपेक्षा रही नहीं, अगर इसको रहना है तो अपने भी भोजन के लिए कहता है वही हिंसा से वजित भोजन आप भोजन मिलेगा इसलिए अनेक प्रकार के नियम लेकर ग्रहण करता है यह भी नहीं कहता मेरे खाने को यह चीज भोजन को जाता है। अगर संयोग से वैसी व्यवस्था बनती चाहिए । कषाय घटती जाती है दो टाइम की जगह एक हता भाग है तो भोजन लेता है । परिग्रह से कोई सम्पर्क नही रहा । टाइम भोजन करने लगता है। व्यापार का त्याग कर पराल्मापन छूट गया, बाहरी परात्मापना तो रहा नहीं। देता है अभी व्यापार में अनुमति देता था अब अनुमति कामवासना रही नही–बह आत्म ऊर्जा जो स्त्री भोग मे देना भी छोड़ देता है। परिग्रह का वो परिमाण किया था लगती थी वह आत्मभोग में लगने लगी-जो बाहर की उसमें कमी करता जाता है । अभी घर पर रहता था अब तरफ पर पदार्थों की तरफ बहती थी वह अन्दर की तरफ मन्दिरादि धर्म के स्थानों में रहता है । अब घर नहीं रहा, बहने लगी। अहिंसामयी क्षमामयी पने को प्राप्त वह आत्मा घर की चहारदिवारी हट गई वह जो घर की सीमा अब वास्तविक स्वभाबिक साधुपने को प्राप्त होता है। यह बनाती थी वह दीवार गिर गयी, अब कोई घर पराया साधु पर ओढ़ा हुआ नहीं है बाहर से आया हुआ नहीनहीं रहा और न कोई घर अपना रहा। जब किसी घर यह बना हुआ साधु नहीं है इसने अपने शरीर को साधु में अपनापना मानते हैं तब अन्य घर में परायापना आता नहीं बनाया परन्तु यह आत्मा साधुता को प्राप्त हुई है, यह आत्मक्रान्ती है। है परन्तु जब अपना मिट जाता है तो पराया भी मिट जाता है। बाहर मे धन नही, कपड़ा नही, खाने का नही, गर्मी एकसंगोटी मात्र परिबह रहा है अब भोजन के सर्दी से बचने का नही परन्तु अंतर के वैभव से महान लिए बुलाने की भी अपेक्षा रही कि जो बुलावे वहीं शांति का अनुभव कर रहे है । जहा दुख रहा नही किसका बाय परन्तु भिक्षा के लिए निकलता है अनुकल स्थिति दुब हो किसी चीज मे अपनापना नही अपना समय ध्यान देखकर भोजन ग्रहण करता है, दिन भर आत्मचिंतन अध्ययन में लगा रहे हैं। बार-बार आत्मस्वरूप की अनुकरता है-वर्ष रात्रि में २४ घण्टे के लिए सोता है। भूति कर रहे है। ४८ मिनट के भीतर एक बार जरूरी गर्मी सर्दी के लिए कोई गाव की जरूरत नहीं रही। अपनी आत्मीक वैभव की अनुभूति करते हैं। ध्यान से हटते परम शान्त अबस्था को प्राप्त होता जाता है। जीवों की हैं तो २८ मूलगुणों रूपी लक्ष्मण रेखा के भीतर प्रवति रक्षा के लिए मयूरपिच्छि रखता है चार हाथ जमीन देख होती है इसके बाहर जाने पर तो साधु की स्थिति ही नहीं कर चलता है न जोर से चलता है न धीमें चलता है। रहती । बच्चा जैसे हिंडोले में मूलता है कभी ऊपर जाता है टट्टी पिशाब भी जमीन को देख कर करता है किसी जीव कभी नीचे आता है। वैसे यह आत्मिक झूले में हिंड रहा की गिराधनान हो जाये। अब विरोधी हिंसा का भी ध्यान में स्थित होता है तो ऊपर में जाता है ध्यान से बचाव हो गया है चाहे कोई मारोपाहे बाली देवे वहां हटकर २८ मूल में आता है। अपना मुनिपना अपने मे कोई कर्क नहीं है। पानता है २८ मूल गुणों को तो राग मानता है जो वहां परन्तु अभी तक भी एक लंगोटी मात्र का अब बस सी है उसकी पराधीनता बाकी है परिणामों में निर्मलता बढ़ती । काय बचन मे कोई फर्क नही, धनिकनारीब का कोई है। आत्म अनुभव के बस पर राग टूटता लगोटी को भेद नहीं, सत्र-मित्र का भेद नही, निंदा और प्रशंसा मे जरूरत नहीं रहती। किसी को मंगा देखने की जरूरत भेद नही, जंगल और शहर में फर्क नहीं। सुख-दुख में, नहीं रही तो अपनी नग्नता ढकने का सवाल भी नहीं बीवन-मरण में कोई भेद नही रहा न मरण दुख है न जीवन या। माता के गर्भ से उत्पन्न हुए निर्विकार बनेको की अभिलाषा है। इस प्रकार आत्मा को आत्मा भाता तरह जो निर्विकार को प्राप्त हो गया है, उसके पास बब हुबा शांत अवस्था को प्राप्त होता है। 0g परमाअभी उतना पड़ा हुआ

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